संगम काल ( प्रथम से तीसरी इ० )
दक्षिण भारत का क्रमबद्ध इतिहास संगम साहित्य (तीसरी या चौथी सदी के साहित्य) से प्राप्त होता है। 'संगम' एक संस्कृत शब्द है, जिसका अर्थ 'सभा' होता है। इस सभा में तमिल कवि या विद्वान एकत्र होते थे। प्रत्येक कवि अथवा लेखक अपनी रचनाओं को संगम के समक्ष प्रस्तुत करता था तथा इसकी स्वीकृति प्राप्त हो जाने के बाद किसी भी रचना का प्रकाशन सम्भव था।
तीन संगमों का काल 9990 वर्ष उल्लिखित है। इसके अतिरिक्त इसमें 8598 कवियों और 197 पाण्ड्य राजाओं के नाम गिनवाये गये हैं। जो कि अविश्वसनीय प्रतीत होता है।
शैव संत तिरानवक्कअवरासु नयनार (अप्पर) ने प्रचीनतम तमिल साहित्य के लिए संगम शब्द का प्रयोग किया था।
कवियों में कापिलार, पारानार, अव्वायर और गौतमनार इत्यादि प्रमुख थे। ये विद्वान कवि भाट कवि थे जिन्हें पुलावर के नाम से जाना जाता था।
अनुसार प्राचीन समय में पाण्ड्य परम्परा के. राजाओं के संरक्षण में कुल तीन संगम \ आयोजित किये गये। इन संगमों में संकलित साहित्य को ही 'संगम साहित्य' के नाम से जाना जाता है।
प्रथम संगमः
प्रथम संगम का आयोजन पाण्ड्यों की प्राचीन राजधानी मदुरा में हुआ था। इसकी अध्यक्षता अगस्त्य ऋषि ने की। अगस्त्य ऋषि को ही दक्षिण में आर्य सभ्यता के प्रचार का श्रेय प्रदान किया जाता है। इस संगम में 549 विद्वानों ने भाग लिया। इस प्रथम संगम को 89 पाण्ड्य शासकों का संरक्षण प्राप्त था।
द्वितीय संगमः
मदुरा के पतन के पश्चात्पा ण्ड्य राजाओं के संरक्षण में दूसरा संगम नये नगर कपाटपुरम् अथवा अलैवे में आयोजित किया गया। इस संगम की अध्यक्षता भी ऋषि अगस्त्य ने की। बाद में उनका स्थान उनके शिष्य तोलकाप्पियर ने लिया। इस संगम द्वारा संकलित ग्रंथों में एकमात्र 'तोलकाप्पियम' ही अवशिष्ट है। यह पुस्तक तमिल व्याकरण की विख्यात पुस्तक है। इस ग्रंथ की रचना ऋषि अगस्त्य के एक शिष्य तोलकाप्पियर ने की थी।
तृतीय संगमः
तृतीय संगम उत्तरी मदुरा में आयोजित किया गया। इस संगम की कार्यावधि 1850 वर्ष मानी गयी है। इस संगम में 49 विद्वानों ने भाग लिया। इस सभा की अध्यक्षता नक्कीरर ने की।
उपलब्ध संगम साहित्य में निम्नलिखित ग्रंथ उल्लेखनीय हैं-तमिल व्याकरण ग्रंथ तोलकाप्पियम, एत्तुतोगे अथवा आठ संग्रह, पत्तुपात्तु अथवा दस गीत, पदिनोकिलकण्क्कु अथवा अठारह लघुगीत और महाकाव्य।
एतुतोकै के अन्तर्गत आठ संकलित ग्रंथों का उल्लेख किया जा सकता है। ये ग्रंथ हैं- नरिणई, कुरुन्दोगई, एगरुन्नरु, पदिरुप्पतु, परिपादल, कालित्तोगई, अहनानुरु तथा पुरनानुरु।
पत्तुपात्तु अथवा दस गीत में भी सांस्कृतिक एवं राजनीतिक जीवन की झांकी मिलती है।
तमिल साहित्य के अन्तर्गत अनेक महाकाव्यों का भी उल्लेख किया जाता है। इसमें शिलपादिकरम्, मणिमेखलाई, जीवक चिंतामणि, बलयपति एवं कुंदलकेसी आदि ग्रंथ आते हैं।
शिलप्पदिकरम से सामाजिक एवं आर्थिक जीवन, प्रमुखतया विदेशी व्यापार पर प्रकाश पड़ता है। इसके रचयिता इलांगोआदिल थे। कथा का नायक कोवलन, नायिका कन्नगी एवं उपनायिका राजनर्तकी माधवी है।
मणिमेखले से भी सामाजिक जीवन पर महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। इसकी रचना सीतलै सत्तनार ने की। इस महाकाव्य की नायिका कोवलन और माधवी की पुत्री मणिमेखलै है।
जीवक चिंतामणि' भी तमिल के प्रमुख महाकाव्यों के अन्तर्गत आता है। इसमें जन्म से मोक्ष तक आत्मा की यात्रा का सुंदर वर्णन किया गया है।
चेर राजवंश
चेरों का पहला राजा उदियन जेरल (130 ई.) था। उसके विषय में कहा जाता है कि उसने महाभारत युद्ध में भाग लेने वाले सभी योद्धाओं को भोजन कराया था। उसके द्वारा भरपेट भोजन कराये जाने के कारण उसे 'महाभोजन उदियनजेरल' की उपाधि मिली।
उसका उत्तराधिकारी उसका पुत्र नेदुनजेरल आदन था।
आदन का छोटा भाई कुटुवन अनेक हाथियों का मालिक था। उसने युद्ध में कौंगु को जीता।
आदन का दूसरा पुत्र शेनगुटुवन था (180 ई.)। उसके एक शक्तिशाली जलबेड़ा था जिसकी सहायता से उसने अपने शत्रु पर विजय प्राप्त की। उसी के समय में 'पत्तिनी पूजा' या 'कण्णगी' (आदर्श पत्नी) की प्रथा तमिल प्रदेश में आरम्भ हुई।
कवियों द्वारा उल्लिखित अतिम चेर शासक कुडक्को इलंजेराल इरंपोरई (लगभग 190 इ० ) है।
चोल राजवंश
चोल राज्य को चोलमण्डलम् या कोरोमण्डल कहा जाता था। यह पेन्नार तथा वेलुर नदियों के बीच में स्थित था।
चोलों का अधिक विश्वसनीय इतिहास प्रसिद्ध राजा करिकाल के शासनकाल में प्रारम्भ हुआ। करिकाल का अर्थ है 'वह व्यक्ति, जिसके पैर झुलसे हुए हों।
वंजी या कुरूर इसकी प्रशासनिक राजधानी थी। इसकी तटीय राजधानी मुसिरी थी।
तोण्डी, मुसीरी तथा मुजिरी आदि इस राज्य के प्रमुख बंदरगाहों आते थे।
उसने महत्त्वपूर्ण युद्ध वाहैप्परेदलई में उसने नौ राजाओं को परास्त किया।
उसके समय में कावेरीपत्तन (पुहार) उद्योग और व्यापार का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया। उसने पुहार की स्थापना की तथा कावेरी नदी पर 160 किलोमीटर लंबा तटबंध बनाया।
पुहार चोल राजधानी कावेरीपत्तनम ही था।
राजा कलिवलवन उरैयूर में राज्य करता था।
संगमयुगीन चोल शासकों ने तीसरी चौथी सदी तक शासन किया। तत्पश्चात् उरैयूर के चोल वंश का इतिहास अंधकारपूर्ण हो जाता है।
पाण्ड्य राजवंश
पांड्यों का सर्वप्रथम उल्लेख मेगस्थनीज ने किया था। उसने अपने विवरण में लिखा था कि पांड्य राज्य पर 'हेराक्लीज' की पुत्री का शासन था तथा वह राज्य मोतियों के लिए प्रसिद्ध था।
यह राज्य कावेरी के दक्षिण में स्थित था। पाण्ड्य राज्य की राजधानी मदुरा थी।
संगम साहित्य में वर्णित पाण्ड्य राजाओं में पहला नाम नेडियोन का आता है। इसी राजा ने पहरूली नदी बनाई तथा समुद्र की पूजा की प्रथा आरंभ की।
प्रथम ऐतिहासिक पाण्ड्य राजा पल्लशालई मुदुकुडुमी था। उसने अनेक यज्ञ किये। उसकी उपाधि 'पल्शालै' (अनेक यज्ञशालायें बनाने वाला) थी।
पाण्ड्य शासकों में सबसे विख्यात नेडुजेलियन (210 ई.) था। उसकी प्रसिद्धि तलैयालंगानम्के युद्ध में चेर, चोल तथा अन्य पाँच राजाओं पर विजय के परिणामस्वरूप हुई।
'शिल्प्पदिकरम्' के महाकाव्य के नायक कोवलन को इसी के शासनकाल में मृत्युदण्ड दिया गया था।
चोलः राजधानी-उरैयुर व तंजावुर, चिह्न-बाघ, बंदरगाह-पुहार (कावेरीपत्तनम)
पांड्यः राजधानी- कोरकै व मदुरई; चिहन-मछली; बंदरगाह-शालियुर व कोरकै।
चेरः राजधानी-वंजी (करूर) चिह्न-धनुष; बंदरगाह-तोंडै व मुशिरी या मुजिरिश
संगमकालीन प्रशासन
राजा का पद वंशानुगत होता था। पुरुष ही राजा बनता था।
संगम साहित्य में किसी महिला शासिका का उल्लेख नहीं मिलता है।
पुरनानुरू में ऐसे चक्रवर्ती राजाओं का आदर्श मिलता है। राजा के दरबार को अवई कहा जाता था।
राज्य का सर्वोच्च न्यायालय राजा की सभा मनरम ही होता था।
संगम काल के बाद की एक कृति 'कुरल' में सभा को सभी कार्यों को सम्पादित करने वाली साधारण परिषद कहा गया है।
संगम कालीन प्रशासनिक व्यवस्था में पूरा साम्राज्य मंडलम कहलाता था। इनके शासक मुदिमनेर अथवा राजा कहलाते थे।
मंडलम के बंटवारे का क्रम था-मंडलम-उर (नगर) या पेरूर (बड़ा -गांव)-सिरूर (छोटागांव) या मुदुर (पुराना गांव), ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होती थी।
सेना का प्रधान सेनापति होता था। वह 'एनाडी' नाम की उपाधि भी धारण करता था।
संगमकालीन समाज
समाजिक संगठन पर आर्यों की वर्ण व्यवस्था का प्रभाव दिखाई देता है। पुरनानुरू में चार जातियों (कुडि) का उल्लेख मिलता है। ये थे-तुडियन, पाणन, परैयम तथा कडम्बन।
संगम समाज चार वर्गों में विभक्त दिखाई देता है- ब्राह्मण, शासक, वणिक तथा कृषक। जादा इनके अतिरिक्त कुछ व्यावसायिक वर्गों का भी उल्लेख मिलता है, जैसे-वेलालर (कृषक), पुलैयन (रस्सी बुनने वाले), चरवाहे, मलवर (डकैती करने वाले), एनियर (शिकारी), पेशेवर सैनिक इत्यादि।
तमिल प्रदेश में स्त्री तथा पुरुष के सहज प्रणय तथा उसकी विभिन्न अभिव्यक्तियों को 'पंचतिणै' कहा गया है।
समाज में विधवाओं का जीवन कष्टपूर्ण था। जिन स्त्रियों के पतियों की मृत्यु युद्ध में हो जाती थी, वे हरी सब्जी, पान खाना, ठंडे पानी से नहाना छोड़ देती थीं।
आर्थिक स्थिति
कृषि में संलग्न लोगों को संगम रचनाओं में साधारणतया 'वेलालर' कहा गया है और जाउनके प्रमुखों को 'वेलिर'।
राज्य की आय का सर्वप्रमुख साधन भूमि कर तथा व्यापार से होने वाली आय थे। भूमि कर उत्पादन का 1/6 भाग था।
लगान नकद और वस्तु दोनों में लिया जाता था। राज्य को व्यापार, सीमा शुल्क तथा चुंगी से भी अच्छी आय होती थी। इसके अतिरिक्त लूट की संपत्ति भी आय का एक साधन थी।
ईराई कर- यह लूट द्वारा प्राप्त होनेवाला धन तथा सामंतों द्वारा दिया जाने वाला कर था।
इराबू- राज्य की ओर से अतिरिक्त मांग और जबरन लिया जाने वाला कर इराबू कहलाता था।
उल्गू या संगम- सीमा शुल्क से प्राप्त धन उल्गू या संगम कहलाता था।
कराई- भूमि कर के रूप में लिया जाता था।
कदमई या पादु - राजा को दिया जाने वाला शुल्क था।
चेर राज्य भैंस, कटहल, काली मिर्च तथा हल्दी के लिए विख्यात था।
उरैयूर सूती वस्त्र एवं सूत का एक विख्यात केन्द्र था।
सिक्कों के लिये 'कासु', 'कनम', 'पोन', 'वेनपोन' आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं।
भारतीय पक्षी मोर का सर्वाधिक निर्यात रोम को होता था।
अलक्जेन्ड्रिया, भारत और रोम के बीच व्यापार का प्रमुख केन्द्र था। उस काल में दक्षिणी राज्यों में सबसे विकसित व्यापार एवं उद्योग कपड़े का था।
प्लिनी और पेरिप्लस के अनुसार मोती के सीप पांड्य देश के कोलंकै (कोल्ची) से प्राप्त होते थे।
कावेरी डेल्टा के बारे में यह कहा जाता था कि जितनी भूमि पर एक हाथी बैठता दी उसमें उतनी पैदावार होती थी कि सात आदमी खा-पी सकें।
तमिल प्रदेश पांच प्राकृतिक क्षेत्रों (पांच तिणै) में बंटा था- कुरिजि (पहाड़ी वन क्षेत्र), पल्लै (शुष्क प्रदेश), मुल्लै (चारागाह क्षेत्र), मरूतम (नम-भूमि) और नेयतल (समुद्र तट)।
तमिल क्षेत्र में तीन राज्य थे चेर, चोल, और पाण्ड्य थे
मेगस्थनीज और कौटिल्य के विवरणों में इन तमिल राज्यों का उल्लेख मिलता है। अशोक के शिलालेखों में भी इन राज्यों की चर्चा है। (दूसरे, पांचवें एवं तेरहवें शिलालेख)
तमिल क्षेत्र के पांच आर्थिक प्रदेश
1. कुरिजि: पहाड़ तथा वन क्षेत्र
2. मुल्लैः चारागाह क्षेत्र
3. मरूतमः कृषक क्षेत्र
4. नेयतलः समुद्रतटीय क्षेत्र
5. पल्लैः शुष्क पहाड़ी क्षेत्र
धार्मिक जीवन
दक्षिण भारत में वैदिक संस्कृति को ले जाने का श्रेय अनुश्रुतियों में अगस्त्य ऋषि को दिया जाता है।
दक्षिण भारत में मुरुगन या मुरुकन की उपासना सबसे प्राचीन है। बाद में नाम सुब्रह्मण्यम वेल्लन भी मिलता है और स्कन्द कार्तिकेय से इस देवता का एकीकरण होता है। उत्तरी भारत में स्कन्द-कार्तिकेय को शिव तथा पार्वती के पुत्र के रूप में माना गया
पुहार में इन्द्र देवता का वार्षिक समारोह मुरुगन का होता था।
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