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मौर्यकाल(324-184  ई.पू)


भारत में ऐतिहासिक युग की शुरुआत मौर्यकाल से ही होती है क्योंकि इसके लिखित स्रोत उपलब्ध हैं।

इस काल के इतिहास के निर्माण व जानकारी के कई प्रमाणिक स्रोत उपलब्ध हैं। इनमें साहित्यिक, पुरातात्त्विक, विदेशी स्रोत शामिल हैं। इन स्रोतों का विवरण इस प्रकार है:

    साहित्यिक स्रोत

     ब्राह्मण साहित्य में पुराण प्रमुख है। विष्णु पुराण से विदित होता है कि मौर्य वंश का संस्थापक चन्द्रगुप्त का जन्म नंद राजा की मुरा नामक पत्नी से हुआ था।

    अर्थशास्त्र के लेखक कौटिल्य या चाणक्य हैं। इसका ज्ञान सर्वप्रथम विद्वानों को 1909 ई. में हुआ। अर्थशास्त्र को 15 अधिकरण एवं 180 प्रकरणों में विभक्त किया गया है। इसके अलावा विशाखादत्तकृत 'मुद्राराक्षस' नाटक से भी मौर्य काल की जानकारी मिलती है। पाणिनी की अष्टाध्यायी व पतंजलि के महाभाष्य से भी मौय काल के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। घुण्डिराज की मुद्राराक्षस पर टीका, वाणभट्ट के हर्षचरित, कल्हण की राजतरंगिणी, गार्गी संहिता एवं आपस्तम्ब सूत्र में भी मौर्ययुगीन विवरण मिलते हैं।

     पुराण नन्दों को 'शूद्र' कहते हैं। मत्स्य पुराण में कहा गया है कि महानन्दनी के पश्चात शूद्र योनि के राजा पृथ्वी पर शासन करेंगे।

     विष्णु पुराण के टीकाकार के अनुसार चन्द्रगुप्त का जन्म नंद राजा की पत्नी 'मुरा' से हुआ था। 'मुरा' से उत्पन्न होने के कारण चन्द्रगुप्त मौर्य' कहलाया। विशाखादत्त के 'मुद्राराक्षस' नामक नाटक में चन्द्रगुप्त को 'वृषल' (शूद्र) कहा गया है।

     बौद्ध साहित्यों में दीपवंश, महावंश, महावंशटीका, महाबोधिवंश शामिल हैं। महावंशटीका के अनुसार चाणक्य ने नंदवंश का नाश करके चन्द्रगुप्त मौर्य को जम्बूद्वीप का सम्राट बना दिया। दिव्यावदान में चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार को मूर्धन्यभिषिक्त क्षत्रिय बताया गया है। महापरिनिब्बानसुत्त से भी मौर्यों के क्षत्रिय होने का आभास मिलता है।

    बौद्ध ग्रंथों में मौर्यों को क्षत्रिय जाति से संबंधित करते हैं। यहाँ चन्द्रगुप्त 'मोरिय' क्षत्रिय वंश का कहा गया है। 'मोरिय' कपिलवस्तु के शाक्यों की ही एक शाखा थे।

     महापरिनिब्बानसुत्त के अनुसार मौर्य या मोरिय पिप्पलिवन के क्षत्रिय शासक थे।

    जैन सहित्यों में भद्रबाहु का कल्पसूत्र तथा हेमचन्द्र का परिशिष्टपर्वन प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त कौटिल्य का अर्थशास्त्र एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इन साहित्यिक स्त्रोतों का अलग-अलग विवरण प्रस्तुत करना समीचीन प्रतीत होता है। अहनानरु तथा पुरनानरु से पता चलता है कि चन्द्रगुप्त ने तमिल प्रदेश पर आक्रमण किया था।

    जैन ग्रंथ चन्द्रगुप्त को साधारण परिवार में उत्पन्न मानते हैं। परिशिष्टपर्वन के अनुसार चन्द्रगुप्त जिस गाँव के प्रधान का पुत्र था, वहाँ के लोग मयूर या मोर पालने का व्यवसाय करते थे, इसलिये चन्द्रगुप्त राजा बनने के बाद मौर्य कहलाया।

     विदेशी स्रोत


     मेगास्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस का राजदूत था जो पाटलिपुत्र में लगभग 6 वर्षों तक रहा था। उसने अपनी पुस्तक 'इण्डिका' में चन्द्रगुप्त मौर्य के विषय में तथा तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक अवस्था का विवरण दिया है। यूनानी राजदूतों में दूसरा महत्वपूर्ण व्यक्ति डायोनीसस था। इसके अलावा स्ट्रैबो, डायोडोरस  ऐरियन, नियार्कस, प्लिनी, प्लूटार्क, जस्टिन, एप्पियानस, एथेनियस इत्यादि यूनानी और रोमन व्याख्याकारों के ग्रंथों से भी इस काल का विवरण प्राप्त होता है

    जस्टिन चन्द्रगुप्त को 'निम्नकुल में उत्पन्न' मानते हैं। उसने चन्द्रगुप्त को सेंड्राकोटस कहा है।

    सर्वप्रथम विलियम जोंस ने सेंड्रोकोटस की पहचान चंद्रगुप्त मौर्य से की।

     एरियन तथा प्लूटार्क ने चंद्रगुप्त को एंड्रोकोटस तथा फिलाकर्स ने सैंड्रोकोटस

    'स्पूनर' मौर्यों को पारसी मानते हैं।

     पुरातात्त्विक प्रमाण

    अशोक ऐसा पहला सम्राट था जिसने राजाओं को शिलालेखों पर खुदवाकर जनता के समक्ष रखा। अभिलेख भारत के साथ अफगानिस्तान में भी पाए गए हैं।

    जूनागढ़ के शक् शासक रूद्रदामन के अभिलेख से सौराष्ट्र पर पुष्यगुप्त वैश्य चन्द्रगुप्त के प्रतिनिधि के रूप में शासन की जानकारी मिलती है।


    चन्द्रगुप्त मौर्य (323 ईपू.-295 ई.पू.) 



     चन्द्रगुप्त मौर्य मौर्यवंश की स्थापना की। उसका जन्म 345 ई. पू. में हुआ था। उसने सिकन्दर से भेंट की। चन्द्रगुप्त की स्पष्टवादिता से क्रुध होकर सिकन्दर ने उसे मार डालने की आज्ञा दी, परन्तु चन्द्रगुप्त ने भाग कर अपनी जान बचायी।

    बौद्ध ग्रंथों के अनुसार धनानंद को मारकर उसकी जगह 321 ई.पू. में चंद्रगुप्त मगध का सम्राट बना।

    प्लूटार्क के अनुसार चन्द्रगुप्त ने 6 लाख सेना के साथ समूचे भारत को रौंद डाला। जस्टिन के अनुसार सारा भारत उसके कब्जे में था।प्लिनी मगध साम्राज्य की सीमा सिंधु नदी तक बताता है। महावंश से ज्ञात होता है कि कौटिल्य ने चन्द्रगुप्त को जम्बूद्वीप का सम्राट बनाया।

    चन्द्रगुप्त का मनोनीत प्रांतपति पुष्यगुप्त सौराष्ट्र का शासक था। उसने ऊर्जयत पर्वत के नीचे की ओर बहने वाली सुवर्णसिक्ता व पलाशिनी आदि नदियों पर बांध बनाकर सौराष्ट्र में प्रसिद्ध सुदर्शन झील का निर्माण कराया था।


    सेल्यूकस के साथ संघर्ष (305ईपू.)



    केवल एप्पियानस इस युद्ध के विषय में लिखता है। उसके अनुसार, सेल्यूकस ने सिंधु नदी पार की और भारत के सम्राट चन्द्रगुप्त से युद्ध छेड़ा। अंत में उनमें संधि हो गयी और वैवाहिक संबंध स्थापित हो गया।

     सेल्यूकस तथा चन्द्रगुप्त में हुई संधि के अनुसार सेल्यूकस ने एरियाना के प्रदेश चन्द्रगुप्त को सौंप दिये। इसके अन्तर्गत चार प्रान्त चन्द्रगुप्त को मिले; एरिया (हेरात), आरकोसिया (कन्धार), जेड्रोसिया या गेड्रोसिया (बलूचिस्तान) और पेरीपेनिसदाई या वैरोपेनिसडाई (काबुल)।

    सेल्यूकस ने अपनी पुत्री का विवाह चन्द्रगुप्त से कर दिया और चन्द्रगुप्त ने 500 हाथी उपहार स्वरूप सेल्यूकस को भेजे। सेल्यूकस ने अपने राजदूत मेगास्थनीज को पाटलिपुत्र भेजा जिसने 'इण्डिका' में चन्द्रगुप्त मौर्य के जीवन, पाटलिपुत्र, इसकी प्रशासनिक व्यवस्था और अन्य विषयों पर लिखा।

    चन्द्रगुप्त मौर्य की दक्षिण भारतीय विजय के विषय में जानकारी अहनानूर व मुरनानुर नामक तमिल स्रोतों से मिलते हैं।

    जैन परम्परा के अनुसार अपनी वृद्धावस्था में चन्द्रगुप्त ने जैन साधु भद्रबाहु की शिष्यता ग्रहण की तथा दोनों 'श्रवणबेलगोला' (कर्नाटक) नामक स्थान पर आकर बस गये। यहीं पर उसने एक जैन भिक्षु की भाँति 'निराहम्' रहकर समाधिस्थ होकर 298 ई. पू. में प्राण त्याग दिये।


    मेगास्थनीजः 



    मेगास्थनीज यूनानी शासक सेल्यूकस के राजदूत के रूप में पाटलिपुत्र आया था और लगभग 6 वर्षों तक यहां रहा था। इंडिका की रचना उसन की। मेगास्थनीज को आधार बनाकर ही बाद में बहुत से यूनानी एवं रोमन लेखकों ने भारत वर्ष का वर्णन किया है। मेगास्थनीज राजा की सुरक्षा एवं दिनचर्या का उल्लेख करता है। राजा की सुरक्षा के लिए स्त्री-अंगरक्षिकाएं थीं। मेगास्थनीज ने डायोनिसस (शिव) तथा हेराक्लीज (कृष्ण) की पूजा का उल्लेख किया है। मेगास्थनीज ने पाटलीपुत्र के नगर प्रशासन का विवरण दिया है। उसके अनुसार 30 सदस्यों का एक बोर्ड, जो छ: समितियों में विभक्त था तथा प्रत्येक समिति के 5 सदस्य थे, नगर प्रशासन की देखभाल करता था। इंडिका के अनुसार भारतीय समाज सात जातियों में विभक्त था- दार्शनिक, किसान, शिकारी और पशुपालन, शिल्पी, योद्धा, निरीक्षक या गुप्तचर तथा अमात्य एवं सभासद।


    बिन्दुसार (298 ईपू.-272 ईपू.)


    यूनानी लेखकों ने बिंदुसार को अमित्रकेटे, अल्लिोशेड्स, अभित्रचेट्स कहा है। बिंदुसार 'अमित्रघात' या अमित्रखाद (शत्रुओं का संहारक) के नाम से विख्यात है। उसे सिंहसेन भी कहा जाता है।


    पुराणों तथा बौद्धग्रंथों में उसे बिन्दुसार कहा गया है।

    तिब्बती लामा तारानाथ चाणक्य ने 16 राज्यों के राजाओं और सामंतों का नाश किया और वह पूर्वी समुद्र से पश्चिमी समुद्रपर्यंत भू-भाग का अधिपति था।

     दिव्यावदान में उत्तरापथ की राजधानी तक्षशिला में विद्रोह का उल्लेख है। इस विद्रोह को शांत करने के लिए बिंदुसार ने अपने पुत्र अशोक को भेजा था।

    तिब्बती लेखक तारानाथ के अनुसार खस और नेपाल के लोगों ने विद्रोह किया और अशोक ने इन प्रदेशों को जीता। स्ट्रेबो के अनुसार सीरिया के राजा अन्तिओकस प्रथम ने अपने राजदूत डायमेकस को बिंदुसार के दरबार में भेजा।

    एथीनियस के अनुसार बिंदुसार ने सीरिया के राजा से मदिरा, अंजीर और एक दार्शनिक भेजने की माँग मान ली, परन्तु दार्शनिक नहीं भेज सका क्योंकि कानूनी रूप से ऐसा सम्भव नहीं था।

    मिस्र के शासक टॉलेमी द्वितीय फिलाडेल्फस ने डायोनिसस को बिंदुसार के पास राजदूत के रूप में भेजा था।

    बिंदुसार को राजकाज में सहायता देने के लिए चाणक्य, खल्लाटक और राधागुप्त जैसे योग्य एवं अनुभवी मंत्री थे। एक अन्य प्रमुख मंत्री सुबन्धु था।

    महावंश के अनुसार बिन्दुसार ने 60,000 ब्राह्मणों को सम्मानित किया।

    पुराणों के अनुसार बिन्दुसार ने 24 वर्ष तक, किन्तु 'महावंश' के अनुसार 27 वर्ष तक राज्य किया। उसका शासनकाल 298 ई. पू. से 273 ई. पू. (25 वर्ष) माना जाता है।

    बिंदुसार आजीवक संप्रदाय का अनुयायी था। दिव्यावदान के अनुसार उसकी राज्यसभा में आजीवक संप्रदाय का एक ज्योतिषी निवास करता था।



     अशोक (273ईपू.-232ईपू.) 



    बिन्दुसार की मुत्यु के पश्चात उसका पुत्र अशोक गद्दी पर बैठा।

    1750 में टीफेंथैलर ने सबसे पहले दिल्ली में अशोक स्तंभ का पता लगाया। जेम्स प्रिंसेप ने ही अशोक के शिलालेखों को सर्वप्रथम पढ़कर उनकी पहचान की।

    सर्वप्रथम 1837 ई. में जेम्स प्रिंसेप ने लेखों के 'देवनांपिय' की पहचान सिंहल (श्रीलंका) के राजा तिस्स से कर डाली थी परंतु बाद में इसकी पुष्टि हुयी कि देवानांम कोई और नहीं वरन् अशोक है।

    उसका नाम मास्की तथा गुजर्रा शिलालेख में मिलता है। सिंहली ग्रंथ दीपवंश में उसे प्रियदर्शन अथवा प्रियदर्शी कहा गया है।

     अशोक अपने पिता के शासनकाल में अवन्ति (उज्जयनी) का उपराजा या गवर्नर था।

    दीपवंश एवं महावंश के अनुसार उसने अपने 99 भाइयों की हत्या कर राजसिंहासन प्राप्त किया। केवल तिस्स या विताशोक को जीवित छोड़ दिया।

    "दिव्यावदान' में अशोक की माता का नाम सुभद्रांगणी मिलता है, जो चम्पा के एक ब्राह्मण की कन्या थी। दक्षिणी परम्पराओं में उसे 'धर्मा' कहा गया है जो प्रधान रानी (अग्रमहिषी) थी।

    सिंहली परम्पराओं के अनुसार उज्जैन जाते हुए अशोक विदिशा में रुका जहाँ उसने एक श्रेष्ठी की पुत्री देवी के साथ विवाह कर लिया। 'महावोधिवंश' में उसका नाम 'वेदिशमहादेवी' मिलता है। उसी से अशोक के पुत्र महेन्द्र तथा पुत्री संघमित्रा का जन्म हुआ और वही उसकी पहली पत्नी थी। दिव्यावदान में उसकी एक पत्नी का नाम 'तिष्यरक्षिता' मिलता है।

     उसके लेख में केवल उसकी पत्नी कारुवाकि का नाम है जो तीवर की माता थी।

    युद्ध में अशोक ने राधागुप्त की सहायता से सुसीम को पराजित किया।

    अशोक 273 ई.पू. के लगभग मगध के सिंहासन पर बैठा। अभिलेखों में उसे 'देवानाम प्रिय' 'देवानाम प्रियदर्षी' तथा 'राजा' आदि की उपाधियों से विभूषित किया गया है। अशोक का विधिवत राज्याभिषेक 269 ई.पू. में हुआ था।

    पुराणों में उसे 'अशोकवर्धन' कहा गया है।

    कल्हण की 'राजतंरगिणी' से ज्ञात होता है कि अशोक ने कश्मीर पर भी विजय प्राप्त की। ऐसा जान पड़ता है कि अशोक कश्मीर का प्रथम मौर्य सम्राट था और उसने श्रीनगर को बसाया था।

    अपने राज्याभिषेक के नवें वर्ष एवं अपने शासनकाल के तेरहवें वर्ष में अशोक ने कलिंग पर विजय (261ई.पू.) प्राप्त की। अशोक के 13वें शिलालेख के अनुसार युद्ध में मारे गये तथा कैद हुए सिपाहियों की संख्या ढाई लाख थी और इससे भी कई गुने सिपाही युद्ध में घायल हुए थे।

    कलिंग  युद्ध की भीषणता ने अशोक पर गहरा प्रभाव डाला। अशोक ने युद्ध की नीति को सदा के लिए त्याग दिया और  दिग्विजय के स्थान पर 'धम्म विजय' की नीति को अपनाया।

     कलिंग की सीमा पर रहने वाले लोगों के प्रति अशोक ने दो आदेश जारी किये, जो.धौली (तोसली) और जौगड़ (समापा) नामक स्थानों पर सुरक्षित हैं। ये आदेश तोसली और समापा के महामात्यों तथा उच्च अधिकारियों को संबोधित करते हुए लिखे गये हैं।

     अर्थशास्त्र के अनुसार कलिंग हाथी के लिए प्रख्यात था।

    13वें शिलालेख में अटवी जातियों को स्पष्ट रूप से कड़ी चेतावनी दी है कि अगर वे किसी प्रकार की गड़बड़ी करेंगे तो अशोक उन्हें कठोर दण्ड देगा।

     अशोक का अभिलेख असम से प्राप्त नहीं हुआ है जिससे पता चलता है कि वह उसके साम्राज्य में शामिल नहीं था।

    अशोक ऐसा प्रथम शासक था जिसने अभिलेखें के माध्यम से अपनी प्रजा को संबोधित किया। उसे इसकी प्रेरणा ईरानी शासक दारा प्रथम से प्राप्त हुआ होगा।


    अशोक के शिलालेख



    • मास्की एवं गुर्जरा अभिलेखों में 'अशोक' का नाम मिलता है। रुम्मिन्देई अभिलेख से मौर्य काल की स्पष्ट कर नीति की जानकारी मिलती है।

    • भाब्रू लघु शिलालेख से पता चलता है कि अशोक ने बोधगया की यात्रा की थी।


    • भाब्रू शिलालेख में अशोक ने बौद्ध त्रिसंघों में विश्वास प्रकट किया है एवं इसी में अशोक के धम्म का उल्लेख मिलता है।


    • अशोक के इलाहाबाद स्तंभ लेख को रानी का अभिलेख भी कहा जाता है।


    • सारनाथ स्तंभ लेख में एवं इलाहाबाद स्तंभ लेख में बौद्ध संघ में फूट डालने वाले भिक्षु या भिक्षुणियों के लिए दण्ड की व्यवस्था की गयी है।



    अशोक का धर्म



    निग्रोध अशोक के बड़े भाई सुमन का पुत्र था। निग्रोध के प्रवचन सुनकर अशोक नेबौद्ध धर्म अपना लिया। बाद में वह मोग्गलिपुत्त 'तिस्स' के प्रभाव में आ गया। उत्तरी भारत की अनुश्रुतियों के अनुसार 'उपगुप्त' ने अशोक को बौद्धधर्म में दीक्षित किया। इन भिक्षुओं की शिक्षा तथा सम्पर्क से अशोक का रुझान बौद्ध धर्म की ओर बढ़ रहा था।

    एक उपासक के रूप में शासन के 10वें वर्ष उसने बोधगया की यात्रा की।

    राज्याभिषेक से संबद्ध लघु शिलालेख में अशोक ने अपने को 'बुद्धशाक्य' कहा है, साथ ही यह भी कहा है कि वह ढाई वर्ष तक एक साधारण उपासक रहा।

    भाब्रू लघु शिलालेख (वैराट-राजस्थान) में अशोक त्रिरत्न बुद्ध, धम्म और संघ में विश्वास प्रकट करता है और भिक्षु तथा भिक्षुणियों से कुछ बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन तथा श्रवण करने के लिए कहता है।

    सिंह स्तंभः सारनाथ
    बैल स्तंभः रामपुरवा
    हाथी स्तंभः संकीसा
    एकल सिंहः लौरिया नंदरगढ़ 

    लघु शिलालेख से यह भी पता चलता है कि राज्याभिषेक के 10वें वर्ष में अशोक ने बोधगया की यात्रा की, बारहवें वर्ष वह निगालिसागर गया और कनक मुनि के स्तूप के आकार को दुगुना किया।

    राज्याभिषेक के 20वें वर्ष लुबनी ग्राम की यात्रा की और ग्राम को कर मुक्त कर दिया तथा केवल 1/8 भाग कर लेने का आदेश दिया।

    'महावंश' तथा 'दीपवंश' के अनुसार अशोक ने बौद्ध की तीसरी बौद्ध संगीति पाटलिपुत्र में बुलायी। उसने अपने स्तम्भों पर बुद्ध के जीवन से संबद्ध पशुओं की आकृतियाँ (हाथी, सांढ़, घोड़ा, सिंह) और चक्र बनवाये।

     अशोक ने जो धम्म की परिभाषा दी है वह 'राहुलोवादसुत्त' से ली गयी है। इस सुत्त को 'गेह विजय' भी कहा गया है अर्थात् गृहस्थों के लिए अनुशासन ग्रंथ।

    अशोक नेधर्मयात्रा' का आरम्भ महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित स्थानों से किया। वह 'लुम्बनी उपवन' (बुद्ध का जीवन स्थल) 'कपिलवस्तु' (बुद्ध की मातृ-भूमि), 'सारनाथ' (बुद्ध का प्रथम उपदेश स्थल), 'श्रावस्ती' (जहां बुद्ध अनेक वर्ष ठहरें), 'बोधगया' (जहां बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ) तथा कुशीनगर (जहां बुद्ध को निर्वाण प्राप्त हुआ) गया।

    पांचवें शिलालेख के अनुसार अभिषेक के 13वें वर्ष धर्ममहामात्र नियुक्त किये गये। तीसरे शिलालेख के अनुसार उसने युक्त, रज्जुक, पुरूष तथा प्रादेशिक नामक अधिकारियों को आज्ञा दी कि वे प्रति पाँचवें वर्ष राज्य में भ्रमण करें तथा जनता के साथ सम्पर्क करके धर्म प्रचार करें।

    चौथे स्तम्भ लेख के अनुसार मृत्यु दण्ड पाये हुए अपराधियों को मृत्यु दण्ड देने के पूर्व 3 दिन का समय दिया जाये यह आज्ञा इस ध्येय से प्रसारित की गयी थी जिससे कि मृत्यु दण्ड के अपराधी अपने आगामी जीवन के लिए पूर्णतया तैयार हो लें।

    अशोक ने अपने ब्रह्मगिरि के लघु शिलालेखों में यह बताया है कि उसने 'भूदेवो' (ब्राह्मणों) को मिथ्या साबित कर दिया है।

    अशोक अपने पाँचवें स्तम्भ लेख में कहता है कि उसने न्याय प्रशासन के क्षेत्र में 'दंड समता एवं व्यवहार समता' का सिद्धांत लागू  किया।

    अशोक के प्रथम पृथक शिलालेख के अनुसार 'सारी प्रजा मेरी संतान है।'


    अशोक के 14 वृहत शिलालेख



    शिलालेख                                                                              विषय
    प्रथम                               पशुबलि एवं सामाजिक उत्सवों- समारोहों पर प्रतिबंध।

    द्वितीय                             समाज कल्याण से संबंधित कार्य, मनुष्य एवं पशु चिकित्सा का उल्लेख (धम्म के कार्य), चोल, पाण्ड्य, सतियपुत्र और केरलपुत्र का उल्लेख।

     तृतीय                              माता-पिता का सम्मान, हर पांच वर्ष पर अधिकारियों को दौरे पर जाने का निर्देश। 'युक्त, रज्जुक और प्रादेशिक' कर्मचारियों की नियुक्ति वर्णित है।

    चतुर्थ                                धम्म की नीति के द्वारा अनैतिकता तथा ब्राह्मणों एवं श्रवणों के प्रति निरादर की प्रवृत्ति,हिंसा आदि को रोका जा सका।

     पंचम                                अशोक के शासन के तेरहवें वर्ष में धम्म महामात्रों की नियुक्ति की चर्चा है। धम्म महामात्रों के कर्त्तव्यों का भी उल्लेख।

     छठा                                इसमें धम्म महामात्रों के लिए आदेश लिखे हैं। अशोक ने इसमें कहा है कि राज्य कर्मचारी (प्रतिवेदक) उससे किसी भी समय राज्य के कार्य के संबंध में मिल सकते हैं।अशोक विश्व कल्याण को परम कर्तव्य मानता है।

    सातवां                             इसमें सभी सम्प्रदायों के बीच सहिष्णुता का आह्वान है। छायादार वृक्ष लगवाना, कुंए धर्मशालाओं एवं जलाशयों का निर्माण करवाना।

    आठवां                            अशोक के धम्म यात्राओं (सम्बोधि वृक्ष दर्शनार्थ) का उल्लेख है। सार्वजनिक निर्माण कार्यों का वर्णन है। अशोक इसे सर्वाधिक आनन्ददायक मानता है।

    नौवां                                सामाजिक उत्सवों की निंदा की गयी है। नैतिकता पर बल दिया गया है। स्त्रियों द्वारा कृत्य मंगलाचार को निरर्थक एवं तुच्छ माना गया है।

    दसवां                              इसमें राजा और अधिकारियों को हर क्षण प्रजा के बारे में सोचने का निर्देश है। धम्म की श्रेष्ठता पर बल दिया गया है। अशोक की परलोक के प्रति आस्था व्यक्त हुई है।

    ग्यारहवां                           इसमें माता-पिता, मित्रों, परिचितों, सम्बन्धियों, श्रमणों, ब्राह्मणों और प्राणियों के प्रति यथोचित व्यवहार की बात कही गयी है।

    बारहवां                           संप्रदायों के मध्य सहिष्णुता रखने का निर्देश है। सभी सम्प्रदायों को सम्मान देने की बात है। इसमें इथिझक (स्त्री अध्यक्ष)महामात्र तथा ब्रजमुसिक का उल्लेख है।

    तेरहवां                            इसमें युद्ध के स्थान पर धम्म विजय का आह्वान है। कलिंग युद्ध का वर्णन है। धम्म विजय में 5 यवन राजाओं एवं आटविक जातियों का वर्णन है। यवन राजा थे- तुरमया (टॉलमी द्वितीय, मिस्र), अंतकिन या मेसोडोनिया का एण्टीगोनस, सेरीन का यवन नरेश भग्ग, ऐपिरस का एलेक्जेंडर तथा अंतियोक या एंटीगोनस द्वितीय।

    चौदहवां                          अशोक ने जनता को धार्मिक जीवन जीने के लिए प्रेरित किया है।


    मौर्य साम्राज्य का पतन



    अशोक के पश्चात मौर्य साम्राज्य का विभाजन हो गया। राजतरंगिणी के अनुसार जालौक कश्मीर का शासक हुआ।

    वृहदथ मौर्य वंश का अंतिम शासक था जिसकी हत्या 185 ई.पू. में उसके सेनापति पुष्यमित्र ने कर डाली।

    पं. हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार अशोक की ब्राह्मण विरोधी नीति के कारण, 
    हेमचंद्र राय चौधरी के अनुसार अहिंसक धम्म नीति के कारण, 
    डी.डी.कौशांबी के अनुसार आर्थिक संकट के कारण
    रोमिला थापर के अनुसार केंद्रीकृत प्रशासन  के कारण तथा 
    निहार रंजन रे के अनुसार विदेशी कला के प्रभाव के कारण मौर्य साम्राज्य का. पतन हुआ।





     मौर्य प्रशासन



    मौर्य साम्राज्य में निम्नलिखित प्रांत थे;


    1.उत्तरापथः इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
    2. अवन्तिः उज्जयिनी (उज्जैन) इसकी राजधानी थी।
    3. दक्षिणापथः इसकी राजधानी सुवर्णगिरि थी।
    4. कलिंगः इसकी राजधानी तोसाली थी।
    5. मध्यदेशः इसकी राजधानी पाटलिपुत्र थी।

    अर्थशास्त्र में अधिकारियों को तीर्थ कहा जाता था जिनकी संख्या 18 थी। सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ मंत्री व पुरोहित होते थे। इनकी नियुक्ति उपधा परिक्षण के द्वारा होता था।

    अध्यक्ष, राज्य की दूसरी श्रेणी के पदाधिकारी थे। स्ट्रबो इन्हें मजिस्ट्रेट के नाम से पुकारता है। कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में 28 प्रकार के अध्यक्षों तथा उनके कर्तव्यों का वर्णन किया है।

    मंत्रिपरिषद के सदस्यों का वेतन 12000 पण था।

    जो अमात्य 'सर्वोपधाशुद्ध' समझे जाते थे, उन्हीं को मंत्री परिषद में स्थान दिया जाता था। अशोक के अभिलेखों में इसका उल्लेख 'परिण' के रूप में हुआ है।
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    मौर्य शासक 


    चन्द्रगुप्त मौर्य                          322 ईसा पूर्व- 298 ईसा पूर्व
    बिन्दुसार                                 297 ईसा पूर्व- 272 ईसा पूर्व
    अशोक                                    273 ईसा पूर्व- 232 ईसा पूर्व
    दशरथ मौर्य                             232 ईसा पूर्व- 224 ईसा पूर्व
    सम्प्रति                                    224 ईसा पूर्व- 215 ईसा पूर्व
    शालिसुक                                215 ईसा पूर्व- 202 ईसा पूर्व
    देववर्मन्                                  202 ईसा पूर्व- 195 ईसा पूर्व
    शतधान्वन् मौर्य                      195 ईसा पूर्व- 187 ईसा पूर्व
    बृहद्रथ मौर्य                             187 ईसा पूर्व- 185 ईसा पूर्व
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    साम्राज्य के जनपद 'समाहर्ता' नामक अमात्य के अधीन होते थे।

     जनपदीय कार्यों में सहायता करने के लिए समाहर्ता के अधीन शुल्काध्यक्ष, (व्यापार संबंधी करों को एकत्र करने वाला), पौतवाघ्यक्ष, (तौल और माप की देख-रेख करने वाला), सीताध्यक्ष, (कृषि विभाग का अध्यक्ष), सूत्राध्यक्ष, (राज्य की ओर से चलने वाले व्यवसायों के विभाग का अध्यक्ष), सुराध्यक्ष (शराब के निर्माण, क्रय-विक्रय, प्रयोग आदि पर नियंत्रण रखने वाला अध्यक्ष), गणिकाध्यक्ष, मुद्राध्यक्ष, नावाध्यक्ष, अश्वाध्यक्ष, पण्याध्यक्ष(बाजार पर नियत्रण रखने वाला), लक्षणाध्यक्ष (मुद्रानीति पर नियंत्रण रखने वाला), देवताध्यक्ष (मंदिरों और पूजा की देखरेख करने वाला) आदि पदाधिकारी कार्य करते थे।

    अन्य पदाधिकारी: कौटिल्य राज्य के अन्य पदाधिकारियों का भी उल्लेख करता है। इसमें निम्नलिखित प्रमुख हैं:

     सन्निधाताः वह राज्य के अर्थ विभाग का अध्यक्ष होता था। राज्य के आय-व्यय का सम्पूर्ण ब्यौरा इसके पास रहता था। उसी के अनुसार वह राज्य की आर्थिक नीति निर्धारित करता था।

    सेनापति : वह संधि-विग्रह के प्रश्नों पर राजा को परामर्श देता था।

    कार्मान्तिकः राज्य की ओर से संचालित कारखानों की देख-रेख कार्मान्तिक करता था।

    प्रशास्ताः राज्य के समस्त विभागों का रिकार्ड 'अक्षपटल' नामक एक कार्यालय में रखा जाता था। इस कार्यालय का सर्वोच्च अधिकारी प्रशास्ता कहलाता था।

    अंतपालः सीमांत प्रदेशों में बने हुए दुर्गों की रक्षा करना इस पदाधिकारी का काम था।

    दुर्गपालः देश के भीतरी भागों में स्थित दुर्गों की रक्षा का भार दुर्गपालों को सौंपा गया था।

    दंडपालः यह पुलिस विभाग का सर्वोच्च पदाधिकारी था।

    दौवारिकः राजा के विशाल राजप्रासाद का प्रबंध दौवारिक नामक पदाधिकारी करता था।

    अमात्य और अध्यक्षः वस्तुतः राज्य के समस्त कार्यकारिणी और न्याय विभाग के उच्चाधिकारी अमात्य कहलाते थे।

    नगरों का प्रबंधः मेगास्थनीज के अनुसार नगर का प्रबन्ध 30 सभासदों की एक समिति करती थी। यह समिति 6 उप-समितियों में बंटी थी। प्रत्येक उपसमिति में 5 सदस्य होते थे। ये समितियाँ थीं: शिल्प एवं औद्योगिक कला समिति, वैदेशिक समिति, जनगणना समिति, वाणिज्य समिति, वस्तु निरीक्षक समिति तथा कर समिति। कारीगरों को वेतन देना, कच्चे माल का निरीक्षण करना तथा इन कारीगरों की सुरक्षा का प्रबन्ध करना आदि शिल्पकला समिति के प्रमुख कर्तव्य थे।

    ग्राम प्रशासनः ग्राम शासन की सबसे छोटी इकाई होता था। ग्राम का अध्यक्ष 'ग्रामणी' होता था। ग्राम सभा के कार्यालय का कार्य 'गोप' नामक कर्मचारी किया करते थे।

    प्रत्येक प्रान्त अनेक जनपदों में विभक्त रहता था। जनपद के निम्नलिखित विभाग होते थे;

    स्थानीय-800 ग्राम, 
    द्रोणमुख-400 ग्राम, 
    खार्वटिक-200 ग्राम, 
    संग्रहण- 100 ग्राम, 
    गोप: 5 से 10 ग्राम 

    प्रत्येक गांव में भी एक सरकारी अधिकारी होता था, जो 'ग्राम भोजक' कहलाता था। ग्राम ही साम्राज्य की सबसे छोटी इकाई थी। प्राचीन भारत में राज्य के 7 अंग समझे जाते थे- 1. राजा, 2. अमात्य, 3. जनपद, 4. दुर्ग, 5. कोष, 6. सेना और 7. मित्र।

    न्याय व्यवस्थाः न्यायालय मुख्यतः दो प्रकार के थे-1. धर्मस्थीय 2.कण्टकशोधन। इन्हें सामान्यतः दीवानी तथा फौजदारी अदालत कह सकते हैं। चोरी, डाके व लूट के मामले धर्मस्थीय न्यायालय में सुने जाते थे जिन्हें सामूहिक रूप से 'साहस' कहा जाता था।

    जनपद न्यायाधीश को रज्जुक कहा जाता था। प्रदेष्टि फौजदारी मौमलों का निपटारा करता था।

    दण्ड विधान अत्यन्त कठोर थे। सामान्यअपराधों में आर्थिक जुर्माने होते थे। इसके अतिरिक्त कैद, कोड़े मारना, अंगभंग तथा मृत्युदण्ड की सजा दी जाती थी। कारीगरों की अंग क्षति करने पर मृत्युदण्ड दिया जाता था। मेगास्थनीज के विवरण से पता चलताहै कि दण्डों की कठोरता के कारण अपराध प्रायः नहीं होते थे।

    अर्थशास्त्र में तीन प्रकार के अर्थदंडों का उल्लेख किया है। पूर्व साहस, मध्यम साहस व उत्त्म साहस।

    गुप्तचर विभागः यह विभाग एक पृथक अमात्य के अधीन रखा गया था जिसे 'महामात्यापसर्प' कहा जाता था। गुप्तचरों को अर्थशास्त्र में 'गूढपुरुष' कहा गया है।

    अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का उल्लेख मिलता है। संस्था अर्थात् एक ही स्थान पर रहने वाले तथा संचार अर्थात प्रत्येक स्थानों में भ्रमण करने वाले। पुरुषों के अतिरिक्त चतुर स्त्रियाँ भी गुप्तचरी का काम करती थी।
    अर्थशास्त्र में वेश्याएं भी गुप्तचरों के पदों पर नियुक्त की जाती थी।

    वित्त व्यवस्थाः खान, नमक, अस्त्र-शस्त्र पर राज्य का नियंत्रण था। भूमि कर उपज का 1/6 भाग होता था, परन्तु व्यवहार में आर्थिक स्थिति के अनुसार इसे कुछ बढ़ा दिया जाता था। भूमिकर को 'भाग' कहा जाता था। 'समाहर्ता' नामक पदाधिकारी करों को एकत्र करने तथा आय-व्यय का लेखा-जोखा रखने का उत्तरदायी था। स्थानिक तथा गोप नामक पदाधिकारी प्रान्तों में करों को एकत्र करते थे।

    सैन्य प्रबंधः चन्द्रगुप्त मौर्य के पास एक अत्यन्त विशाल सेना थी। प्लिनी के अनुसार चंद्रगुप्त मौय के पास 6 लाख पैदल, 50 हजार अश्वारोही, 9 हजार हाथी तथा 800 रथों सुसज्जित विशाल सेना थी। सैनिकों की संख्या समाज में कृषकों के बाद सबसे अधिक थी। सैनिकों का काम केवल युद्ध करना था।

    जस्टिन ने, चंद्रगुप्त की सेना को 'डाकुओं का गिरोह' कहा है।

    मेगास्थनीज के अनुसार सेना का प्रबंध छह समितियों द्वारा होता था। प्रत्येक समिति में पाँच-पाँच सदस्य होते थे। इनका कार्य अलग-अलग था। प्रथम समिति जल सेना की व्यवस्था करती थी। दूसरी समिति यातायात एवं रसद की व्यवस्था करती थी। तीसरी समिति पैदल सैनिकों की देखरेख करती थी। चौथी अश्वारोहियों की सेना की व्यवस्था करती थी। पांचवी गजसेना की व्यवस्था तथा छठी समिति रथों के सेना की व्यवस्था करती थी। सेनापति युद्ध विभाग का प्रधान अधिकारी होता था।

    सेनापति का पद बहुत महत्वपूर्ण होता था और वह 'मंत्रिण' का सदस्य होता था। उसे 48000 पण वार्षिक वेतन दिया जाता था। युद्ध क्षेत्र में सेना का संचालन करने वाला अधिकारी नायक कहा जाता था। सेनापति के पश्चात 'नायक' का पद ही सैनिक संगठन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण था जिसे 12000 पण वार्षिक वेतन प्राप्त होता था। मौर्यों के पास शक्तिशाली नौसेना भी थी। अर्थशास्त्र में 'नवाध्यक्ष' नामक पदाधिकारी का भी उल्लेख हुआ है।
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    मौर्यकालीन अधिकारी


    1. समाहर्ता राजकीय कर संग्रहकर्ता
    2. सन्निधाता : कोषाध्यक्ष
    3. युक्त :लिपिक
    4. प्रादेशिक : जिले का मुख्य अधिकारी
    5. लक्षणाध्यक्ष : टकसाल का अध्यक्ष
    6. सीताध्यक्ष : कृषि का अध्यक्ष
    7. पौतवाध्यक्ष : माप-तौल का अध्यक्ष
    8. पण्याध्यक्ष : व्यापार का अध्यक्ष
    9. रूपदर्शक : सिक्कों का परीक्षक
    10.विवीताध्यक्ष : चरागाह का अध्यक्ष
    11. मुद्राध्यक्ष : पासपोर्ट का अध्यक्ष
    12.सूत्राध्यक्ष : कपड़ा बुनाई उद्योग का अध्यक्ष
    13. द्वौवारिक : द्वारों का रक्षक
    14. अन्तवर्शिक : अंत:पुर का रक्षक : पुलिस विभाग का अध्यक्ष
    15. प्रशास्तृ
    16. प्रदेष्ट्रा : नैतिक अपराधों का प्रमुख न्यायाधीश
    17. अंतपाल : सीमा रक्षक
    18. कौन्तिक : कारखाने का अधिकारी
    19.दण्डपाल : पुलिस विभाग का प्रधान अधिकारी
    20.अकाराध्यक्ष :खान अधीक्षक
    21.नवाध्यक्ष : राज्य की नौकाओं का अधीक्षक
    22.संस्थाध्यक्ष : बाजार-अधीक्षक
    23.शुल्काध्यक्ष : मार्ग कर अधीक्षक
    24.सुराध्यक्ष मद्यनिर्माण अधीक्षक
    25. लवणाध्यक्ष : नमक की खान का अधीक्षक
    26. लोहाध्यक्ष : लोहे के उत्खनन का अधीक्षक
    27. पत्तनाध्यक्ष : तट एवं बंदरगाह का अधीक्षक
    28. गौ-अध्यक्ष : शाही पशुशाला का अध्यक्ष
    29. अश्वाध्यक्ष : घुड़सवार सेना का अध्यक्ष
    30.हस्त्याध्यक्ष : हस्ति सेना का अध्यक्ष
    31. कोष्ठागाराध्यक्षः केन्द्रीय भंडार का अधीक्षक
    32.शुनाध्यक्ष : बूचड़खाने का मुख्य प्रभारी
    33. सुवर्णाध्यक्ष : स्वर्ण-विपणन का अधीक्षक
    34. देवताध्यक्ष : मंदिरों का अधीक्षक
    35. बंधनगृहाध्यक्ष : कारावास का अधीक्षक
    36. द्यूताध्यक्ष : यूत का अधीक्षक
    37. पत्तयाध्यक्ष : पैदल सेना का अध्यक्ष
    38.रथाध्यक्ष : रथ प्रबन्ध का अधीक्षक
    39.मानाध्यक्ष : काल व सर्वेक्षण का अधीक्षक
    40. आयुधगाराध्यक्षः शास्त्रागार का अधीक्षक
    41. कुप्याध्यक्ष : वन-उत्पादों का अधीक्षक
    42. नागवनाध्यक्ष: हस्तिवन प्रबंधक
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    मौर्यकालीन समाज


    अर्थशास्त्र में 'शूद्र' को आर्य कहा गया है और इन्हें मलेच्छ से भिन्न माना गया है।

    अर्थशास्त्र में करीब 15 मिश्रित जातियों का भी उल्लेख हुआ है। इन्हें अंतेवासिन कहा गया है। इनकी उत्पति अनुलोम और प्रतिलोम विवाहों के कारण हुई। इन जातियों में प्रमुख अम्बष्ट, निषाद, पारशव, रथकार, वैदेहक, मागध, सूत, चाण्डाल, पुल्लकस, क्षत्ता, श्वपाक इत्यादि हैं।

    मेगास्थनीज ने लिखा है कि कोई भी व्यक्ति अपनी जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकता।

    मेगास्थनीज ने भारतीय समाज को सात जातियों में विभक्त किया है: 1. दार्शनिक, 2. किसान, 3. अहीर, 4. कारीगर या शिल्पी, 5. सैनिक, 6. निरीक्षक, 7. सभासद तथा अन्य शासक वर्ग। मेगास्थनीज का यह वर्णन भारतीय वर्णव्यवस्था या जाति व्यवस्था से मेल नहीं खाता।

    मेगास्थनीज और अन्य यूनानी लेखकों (डायोडोरस, एरियन, स्ट्रेबो) की धारणा थी कि मौर्यकालीन भारतीय समाज में दास प्रथा प्रचलित नहीं थी।

    मेगास्थनीज के अनुसार भारत में सभी स्वतन्त्र और समान हैं। उनमें कोई भी दास नहीं है।

    अर्थशास्त्र में 9 प्रकार के दासों का वर्णन किया गया है। वे थे-उदरदास, दण्डप्रणीत, ध्वजाहृत, गृहजात, दायागत, लब्ध, क्रीत, आत्म-विक्रयी एवं अहितक।

    मौर्य युग में बहुत सी स्त्रियाँ ऐसी थीं जो विवाह द्वारा पारिवारिक जीवन न बिताकर गणिका या वेश्या के रूप में जीवन यापन करती थीं। वे अनेक प्रकार से राजा का मनोरंजन करती थीं। स्वतन्त्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियाँ 'रूपाजीवा' कहलाती थीं।

    नगरी में 'प्रेक्षाएं लोकप्रिय थीं। स्त्री और पुरुष कलाकार दोनों प्रेक्षाओं में भाग लेते थे। इन्हें 'रंगोपजीवी' तथा 'रंगोपजीवनी' कहते थे।
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    अशोक के लघु शिलालेख

    1. रूपनाथ (मध्य प्रदेश के जबलपुर जिले में स्थित)
    2. गुर्जरा (मध्य प्रदेश के दतिया जिले में स्थित)
    ३. सासाराम (बिहार के रोहतास जिले में स्थित)
    4. मास्की (रायचूर जिला, हैदराबाद)
    5. ब्रह्मगिरि (चित्तलदुर्ग, मैसूर)
    6. सिद्धपुर (ब्रह्मगिरि, कर्नाटक)
    7. जतिंग रामेश्वर (ब्रह्मगिरि, कर्नाटक)
    8. भाव (वैराट, जयपुर)
    9. एरांगुडि (कुर्नूल, आन्ध्र प्रदेश)
    10. गोविमठ (कोपबल, मैसूर)
    11. पालकिगुण्ड्डू, (मैसूर)
    12. राजुलमहेंद्रगिरि (कुर्नूल, आंध्र प्रदेश)
    13. अहरौरा (मिर्जापुर, उ. प्र.)
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    आर्थिक स्थिति


    कृषि, पशुपालन और वाणिज्य-व्यापार को सम्मिलित रूप से वार्ता कहा जाता था।

    ऐसी भूमि जिसमें बिना वर्षा के भी अच्छी खेती हो सके, अदेवमातृक कहलाती थी।

    मेगास्थनीज के अनुसार शत्रु अपनी भूमि पर काम करते हुए किसी को हानि नहीं पहुँचाता क्योंकि इस वर्ग के लोग सर्वसाधारण द्वारा हितकारी माने जाते हैं।

    राजकीय भूमि को सीता कहा जाता था। इस पर दासों, कर्मकारों और कैदियों द्वारा जुताई और बुआई होती थी। ऐसी भी राजकीय भूमि होती जिस पर सीताध्यक्ष द्वारा खेती नहीं कराई जाती थी। ऐसी भूमि पर 'करद कृषक' खेती करते थे।

    मेगास्थनीज, एरियन इत्यादि यूनानी लेखकों के अनुसार सारी भूमि राजा की होती थी।

    प्रजा राजा के लिए खेती करते थे और 1/4 भाग राजा को लगान देते थे। कौटिल्य के अनुसार यदि वे अपने बैंक बीज और हथियार लाएं तो उपज के 1/2 भाग के अधिकारी थे। यदि कृषि उपकरण राज्य द्वारा दिये जाये तो वे 1/4 या 1/3 अंश के भागी थे।

    अशोक ने लुम्बिनी में भूमिकर को घटाकर 1/8 भाग कर दिया था।

    भूमि के संबंध में 'स्वाम्य' का उल्लेख है। कहा गया है कि जिस भूमि की स्वामी नहीं है वह राजा की ही हो जाती है।

    राज्य द्वारा किये गये सिंचाई के व्यापक प्रबंध को 'सेतुबंध' कहा जाता था।

    जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार चन्द्रगुप्त के गवर्नर पुष्यगुप्त वैश्य ने सौराष्ट्र में सुदर्शन झील का निर्माण करवाया था। -राजकीय प्रयासों द्वारा व्यवस्थित सिंचाई प्रबन्ध पर सिंचाई कर लगता था। इसकी दर 1/5 से 1/3 पर थी।

    मौर्य युग में पहली बार छल्लेदार कुओं का निर्माण हुआ।

     मेगास्थनीज ने लिखा है कि भारत में अकाल  नहीं पड़ते, किन्तु कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अध्ययन से स्पष्ट है कि दुर्भिक्ष पड़ते थे। जैन अनुश्रुति के अनुसार मगध में 12 साल का एक दुर्भिक्ष पड़ा था। 'सहगौरा' और 'महास्थान' अभिलेख में दुर्भिक्ष के अवसर पर राज्य द्वारा राज्य कोष्ठागार से अनाज-वितरण का विवरण है।

     वन दो प्रकार के होते थे-हस्तिवन जहाँ हाथी रहते थे और द्रव्यवन जहाँ से अनेक प्रकार की लकड़ियां तथा लोहा, ताँबा, इत्यादि धातुएँ प्राप्त होती थीं।

     उद्योग धन्धे 

    बंगाल अपने मलमल व्यवसाय के लिए प्रसिद्ध था। कौटिल्य ने 'चीनपट्ट' का भी नामलिया है। इससे प्रकट होता है कि इस समय चीन का रेशमी वस्त्र भारत में आता था।

    नियार्कस ने लिखा है कि भारतीय श्वेत रंग के जूते पहनते थे जो अति सुन्दर होते थे। एरियन ने समृद्ध परिवारों द्वारा हाथी दाँत के कर्णाभूषण का इस्तेमाल किये जाने का उल्लेख किया है।

    व्यापार

     स्ट्रेबो के अनुसार, पाटलिपुत्र से पश्चिमोत्तर प्रदेश को जाने वाला मार्ग 1300 मील लंबा था। दूसरा महत्वपूर्ण मार्ग 'हैमवंत पथ' था जो हिमालय की ओर जाता था। दक्षिण भारत की ओर अनेक मार्ग गये थे।

     ग्रंथों में 18 प्रकार की श्रेणियों का उल्लेख है।

    कौटिल्य के अनुसार 'दक्षिणापथ' में भी वह मार्ग सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जो खानों से गुजरता है जिस पर गमनागमन बहुत होता है और जिस पर परिश्रम कम पड़ता है। मेगास्थनीज एग्रोनोमोई नामक मार्ग निर्माण के एक विशेष अधिकारी की चर्चा करता है। 

    कौटिल्य ने स्थलमार्गीय व्यापार की अपेक्षा नदी मार्गीय व्यापार को अधिक सुरक्षित बताया है। 

    अर्थशास्त्र में विदेशी सार्थवाहों (काफिलों) का उल्लेख आया है जो पश्चिमोत्तर भारत के स्थल भागों से व्यापार के लिए आते थे।

     भारत में आने वाली विदेशी सामग्री में 'चीनपट्ट' और 'कार्दमिक मुक्ता' (ईरान की कर्दम नदी में उत्पन्न) का विशेष मान था। 

    इस समय भारत और मिस्र के बीच होने वाला व्यापार भी उन्नत था। इस व्यापार को और अधिक प्रोत्साहन देने के लिए मिस्त्र नरेश 'टालमी' ने लाल सागर के तट पर 'बरनिस' नाम का एक बंदरगाह स्थापित करवाया था। इस बंदरगाह से मिस के प्रमुख बंदरगाह सिकन्दरिया तक तीन स्थल मार्ग जाते थे। 

    पूर्वी तट पर ताम्रलिप्ति तथा पश्चिमी तट पर भृगुकच्छ तथा सोपारा बंदरगाह थे। स्ट्रैबो के अनुसार मौर्यकाल में जलयान निर्माण पर राज्य का एकाधिकार था। 

    इस काल में देशी वस्तुओं पर 4 प्रतिशत तथा आयात वस्तुओं पर 10 प्रतिशत बिक्री कर लिया जाता था। 

    मुद्रा प्रणाली: मौर्यकाल तक मुद्रा का प्रचलन हो चुका था। 'लक्षणाध्यक्ष' मुद्रा व्यवस्था या राजकीय टकसाल का नियंत्रक था।

     आहत रजत सिक्के' मौर्यकालीन स्थलों से बड़ी संख्या से मिले हैं जिनसे सिक्कों के प्रचलन की पुष्टि होती है। इन पर मयूर, पर्वत व अर्धचंद्र चिन्ह होते थे। अर्थशास्त्र में अनेक प्रकार की मौर्यकालीन मुद्राओं के नाम आये हैं। इनमें से प्रमुख हैं- 1. सुवर्ण- सोने का, 2. कार्षापण या पण या धरण-चाँदी का, 3. माषक-ताँबे का, 4. काकिणी ताँबे का।

     लक्षणाध्यक्ष मुद्रा जारी करता था। लोग जब स्वयं सिक्के बनाते थे तो उसे राज्य को ब्याज 'रूपिका' और 'परिक्षण' के रूप में देना पड़ता था।

     मुद्राओं का परीक्षण करने वाला अधिकारी रूपदर्शक कहा जाता था।

     ब्राह्मण धर्म 

    मेगस्थनीज के अनुसार मथुरा हेराक्लीज (कृष्ण) की पूजा का प्रधान केन्द्र था। शिव, भागवत या शैव सम्प्रदाय भी प्रचलित था।

     चन्द्रगुप्त मौर्य जैन मतावलम्बी था। चन्द्रगुप्त के समय में ही जैनधर्म के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना घटी जिसने जैन धर्म को दो सम्प्रदायों में विभक्त कर दिया। पाटलिपुत्र की जैन सभा में जैनधर्म 'श्वेताम्बर' और 'दिगम्बर' सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। मगध के जैन श्वेताम्बर कहलाये और भद्रबाहु के शिष्य दिगम्बर।

     बौद्ध संघ में व्याप्त मतभेदों को दूर करने के लिए उसने बौद्धों की 'तीसरी संगिति' पाटलिपुत्र में 'मोग्गलिपुत तिस्स' के सभापतित्व में बुलायी। उसने संघ में फूट डालने वालों के लिए दण्ड की व्यवस्था की। 

     अशोक ने अपने शासनकाल के बारहवें वर्ष में बराबर पहाड़ियों की दो गुफाएं आजीवकों को दे दी थी। दशरथ ने भी आजीवकों को नागार्जुनी पहाड़ियों में कुछ गुफाएं दान में दी। 

    शिक्षा और साहित्य 

    इस समय 'तक्षशिला' उच्चतम शिक्षा का एक प्रसिद्ध केन्द्र था। तक्षशिला के अतिरिक्त वाराणसी शिक्षा का दूसरा प्रमुख केन्द्र था।

     लिपि: अशोक के अधिकांश शिलालेखों ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपि में मिलते हैं। केवल 'मानसेहरा' और 'शहबाजगढ़ी' के शिलालेख खरोष्ठी लिपि में हैं। खरोष्ठी लिपि दाई से बाईं ओर लिखी जाती है। 


    मौर्यकालीन कला 



    अशोक के समय में काश्मीर के 'श्रीनगर' और नेपाल के 'ललितपतन' नामक नगरों का निर्माण हुआ। पाटलिपुत्र में उसने अपने लिए जो राजप्रासाद बनवाया था, वह अति सुन्दर था। उसकी मृत्यु के लगभग 700 वर्ष पश्चात उस राजप्रासाद की सुन्दरता को देखकर चीनी यात्री फाह्यान विस्मय में पड़ गया। उसके अनुसार राजाप्रसाद का निर्माण मनुष्य नहीं देवता द्वारा किये गये थे। 

    मौर्य सम्राट अशोक और दशरथ द्वारा निर्मित गुहा-गृह आज भी बराबर और नागार्जुनी पहाड़ियों पर विद्यमान हैं। ये आजीवक-भिक्षुओं के रहने के लिए बनवाये गये थे। इनकी दीवारें शीशे की भाँति चिकनी और चमकदार हैं। 

    बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने 84 हजार स्तूपों का निर्माण किया था। चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने सातवीं शताब्दी में अफगानिस्तान और भारतवर्ष के विभिन्न भागों में अशोक के इन स्तूपों को खड़े देखा था। सांची का स्तूप मूलतः अशोक का ही बनवाया हुआ था। वह ईंटों का था। बाद में इसका आकार दुगुना कर दिया गया और ईटों के ऊपर पत्थर ढकवा दिये गये। अशोक का एक अन्य स्तूप भरहूत नामक स्थान पर मिला था।


    अशोक के समय का सारनाथ में धर्मरजिका स्तूप का निचला भाग इस समय भी विद्यमान है।

     अशोक की समस्त कला-कृतियों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं उसके पाषाण स्तम्भ। इनकी संख्या 30-40 है। इनका निर्माण चुनार के बलुआ पत्थर से किया गया था। इनकी पॉलिश आज भी शीशे की भाँति चमकती है। डा. स्मिथ के अनुसार 'कठोर पाषाण को चिकना करने की कला इस पूर्णता तक पहुँच गयी थी।

    ' सारनाथ का स्तम्भ काफी महत्वपूर्ण हैं। इनमें चार शेरों को एक ही साथ पीठ जोड़े खड़ा किया गया है।


    अशोक स्तंभ लेख



    • दिल्ली-टोपरा : प्रारम्भ में यह उ. प्र. के सहारनपुर जिले (खिज्राबाद) में था। फिरोजशाह तुगलक ने इसे दिल्ली लाया था। इस पर अशोक के 7 अभिलेख उत्कीर्ण हैं, जबकि शेष स्तम्भों पर केवल 6 लेख ही उत्कीर्ण मिलते हैं।

    • दिल्ली-मेरठ : प्रारम्भ में यह मेरठ में था। फिरोजशाह तुगलक ने इसे दिल्ली लाया। लौरिया अरेराज : बिहार के चंपारन जिले में स्थित है।

    • लौरिया नंदनगढ़ : बिहार के चम्पारन जिले में स्थित है। रामपुरवा (Bull Capital): यह भी बिहार के चम्पारन जिले में स्थित है।

    • प्रयाग : पहले यह कौशाम्बी में था तथा बाद में अकबर द्वारा इलाहाबाद के किले में रखा गया। इसमें समुद्रगुप्त के राजकवि हरिषेण द्वारा समुद्रगुप्त की विजय अभियानों का भी वर्णन है।

    • इन लेखों की संख्या 7 है जो 6 भिन्न स्थलों से पाये गये हैं। इसने स्तम्भ लेखों में अशोक के धम्म प्रचार के साधनों एवं उपायों का वर्णन है। स्मिथ के अनुसार इन अभिलेखों की तिथि 242 ई. पू. है।

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