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मौर्योत्तर काल PART 3 

कुषाण


कुषाण यू-ची कबीले से संबंधित थे।

भारत में कुषाण वंश का प्रथम शासक कुजुल कडफिसस (15-65ई.) था।

कुजुल कडफिसस के सिक्के बड़ी संख्या में तक्षशिला के सिरकप नामक स्थल से प्राप्त हुए है।

कुजुल कडफिसस ने केवल तांबे के सिक्के ही जारी किये, इसके बाद के सिक्कों पर 'महाराजाधिराज' तथा धर्मथिदस एवं धर्मथित खुदा हुआ है।

विम कडफिसस ने सिंधु नदी पार कर तक्षशिला एवं पंजाब को जीत लिया तथा मथुरा तक अपनी शक्ति का विस्तार किया।

कुषाण शासकों में विम कडफिसस ने ही सर्वप्रथम भारत में स्वर्ण सिक्के प्रचलित करवाये थे।

 विम कडफिसस के कुछ सिक्कों पर शिव, नंदी एवं त्रिशूल की आकृति मिलती है जो उसके शैव होने का प्रमाण है।





    कनिष्क



    कुषाण वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक कनिष्क था।

    सुई बिहार (सिंधु-क्षेत्र) से प्राप्त कनिष्क का अभिलेख निचली सिंधु घाटी पर उसका अधिकार सिद्ध करता है।

    कनिष्क का काल 78 ई. से 144 ई. के बीच माना जाता है।

    कनिष्क ने पुरुषपुर (पेशावर) को अपनी राजधानी बनायी। उसकी दूसरी राजधानी मथुरा थी।

    कल्हण की राजतरंगिनी के अनुसार कनिष्क ने कश्मीर पर अधिकार कर वहां कनिष्कपुर' नामक नगर बसाया।


    कनिष्क ने पाटलीपुत्र पर अधिकार कर वहां से बौद्ध विद्वान अश्वघोष, बुद्ध का भिक्षापात्र, एक रसोइया तथा एक अनोखा मुर्गा प्राप्त किया था। इसके अतिरिक्त उसने मध्य एशिया में खोतान, काशगर और यारकंद को भी विजित किया था।

    कनिष्क ने देवपुत्र (चीनी सम्राट के समान) तथा कैसर (रोम सम्राट के समान) उपाधि धारण की।

    कनिष्क के समय बौद्ध धर्म की चौथी संगीति कश्मीर के कुंडलवन में संपन्न हुई थी।

    कनिष्क महायानी बौद्ध था। उसके बौद्ध होने का प्रमाण उसके सिक्कों से मिलता है।

    कनिष्क के सिक्कों पर यूनानी, ईरानी एवं हिंदू देवताओं के चित्र मिलते हैं। इन देवताओं में हेराक्लीज, सूर्य, शिव, अग्नि आदि प्रमुख हैं।

     कनिष्क के समय सिल्क मार्ग अत्यंत प्रसिद्ध था। चूंकि पार्थियनों के साथ रोम के संबंध अच्छे नहीं थे, इसलिए चीन से व्यापार करने के लिए रोम को कुषाणों से मधुर संबंध बनाने पड़े।

    कनिष्क के एक तांबे के सिक्के पर उसे बलिवेदी पर बलिदान करते दिखाया गया है।

    78ई. में कनिष्क ने शक संवत चलाया।

    महास्थान (बोगरा) से एक सोने की मुद्रा प्राप्त हुई है जिस पर कनिष्क की एक खड़ी प्रतिमा अंकित है।

    मथुरा से कनिष्क की एक ऐसी प्रतिमा मिली है जिसमें उसे सैनिक वेशभूषा में दिखाया गया है।

    कनिष्क ने पेशावर के निकट एक विशाल स्तूप एवं मठ का निर्माण करवाया था।

    उसके दरबार को नागार्जुन, चरक, अश्वघोष, मातृचेट, 'यूनानी इंजीनियर एगिसिलेयस आदि विद्वान सुशोभित करते थे।

    कुषाण वंश के अगले शासक वासिष्क के लेख मथुरा एवं सांची में मिले हैं।

    अगला शासक हुविष्क के सिक्कों पर रोमन, ईरानी, हिंदू देवताओं के चित्र अंकित हैं। हिंदू देवताओं में स्कन्द कुमार, विशाखा और शिव आदि हैं।

    हुविष्क के सिक्कों पर हरिहर के प्रतिमा का पूर्व रूप मिला है।

    कुषाण वंश का अंतिम महान राजा वासुदेव था। वासुदेव शैव मतानुयायी था। उसकी मुद्राओं पर शिव तथा नंदी की आकृतियां उत्कीर्ण मिलती हैं।

    कुषाणों ने भू-धारण-अधिकार की अक्षयनीवी प्रणाली शुरू की थी जिसका आशय है- भू-राजस्व का स्थायी दान।

     कुषाणों से घुड़सवारी, लगाम, जीन, पगड़ी, कुरती, पतलून, लंबे कोट, शिरस्त्राण आदि व्यवहार भारतीयों ने सीखा।


    मौर्योत्तरकालीन राजव्यवस्था, अर्थव्यवस्था तथा समाज



     शकों एवं पार्थियनों ने संयुक्त शासन का प्रचलन शुरू किया, इसमें युवराज एवं राजा दोनों संयुक्त रूप से शासन करते थे।

    इस काल में शूद्रों की स्थिति में सुधार हुआ, अधिकतर कारीगर शूद्र वर्ण से थे।

     सर्वप्रथम इंडो-ग्रीक शासकों ने शासकों के नाम वाले सोने के सिक्के जारी किये।

     ईसा की पहली शती में हिप्पालस नामक ग्रीक नाविक ने अरब सागर में चलने वाली मानसूनी हवाओं की जानकारी दी।

    उस काल का सबसे समृद्ध बंदरगाह भड़ौंच (बेरिगाजा) था। सबसे प्राचीन सोपारा तथा सबसे बड़ा बंदरगाह कल्याण था। सिंधु के मुहाने पर बरबारीकम बंदरगाह था। टॉलमी ने गोदावरी और कृष्णा के मुहाने के बीच के क्षेत्र 'माइसोलिया' में अनेक बंदरगाह होने का वर्णन किया है। पूर्वी तट पर अरिकमेडु बंदरगाह था। परिपल्स ऑफ एरिथ्रियन सी (अनाम लेखक) में अरिकमेडु को पेडोक कहा गया है। वह मोती को शुक्ति कहता है।

     मध्य एशिया से गुजरने वाला वह व्यापारिक मार्ग जो चीन को पश्चिम के एशियाई भू-भागों एवं रोमन साम्राज्य से जोड़ता था, सिल्क मार्ग या रेशम मार्ग के नाम से जाना जाता था। इसमें भारत के व्यापारियों की भूमिका मध्यस्थों की होती थीं।

     रोमवाले मुख्यतः मसालों का आयात करते थे जिनके लिए दक्षिण भारत मशहूर था।

    रोम से भारत आई वस्तुओं में सबसे महत्व के हैं रोमन सिक्के जो सोने एवं चांदी के हैं।

    77ई. में नेचुलर हिस्ट्री के लेखक प्लिनी दुख भरे शब्दों में कहता है कि भारत के साथ व्यापार करके रोम अपना स्वर्णभंडार लुटाता जा रहा है।

    यूनानियों को गोलमिर्च इतना पसंद था कि इसे 'यवनप्रिय' कहा जाने लगा।


    बौद्ध ग्रंथ महावस्तु में 36 प्रकार के शिल्पियों एवं मिलिन्दपन्हों में 75 व्यवसायों की चर्चा हुई है।

     जातक ग्रंथों में 18 श्रेणियों का उल्लेख मिलता है। इनके अलग-अलग व्यावसायिक नियम होते हैं।

    विदिशा के हस्तिदंत शिल्पियों की एक श्रेणी ने सांची के स्तूप के चारों ओर की परिवेष्टनी एवं प्रवेश द्वारों पर पाषाण शिल्प का उत्कीर्णन करवाया था ।


    मौर्योत्तरकालीन कला


    बुद्ध की सर्वाधिक पुरानी मूर्तियों में से एक कटरा बुद्ध की मूर्ति मथुरा में मिली है।

     जैन मूर्तियां कंकाली टीला मथुरा से प्राप्त हुई हैं। इनमें पार्श्वनाथ को सांपों के साथ और ऋषभदेव को कंधे पर झूलते हुए बालों के साथ पहचाना जा सकता है। 

    गंधार कला (50 ई.पू.-500 ई.): इसका दूसरा नाम 'ग्रीक-बौद्ध शैली' भी है। इसके अंतर्गत मूर्तियों में शरीर की आकृति को सर्वथा यथार्थ व पारदर्शी दिखाने का प्रयत्न किया गया। यहां की मूर्तियों में बुद्ध का मुख यूनानी देवता अपोलो से मिलता है। गंधार कला में प्रभामंडल की रचना की जाती थी। गंधार कला में मूर्तियां विशेष प्रकार के काले अथवा स्लेटी रंग के पत्थरों से निर्मित हैं। बुद्ध की सर्वाधिक मूर्तियों का निर्माण गंधार कला में हुआ। इन मूर्तियों में सर्वाधिक मूर्तियां मैत्रेय बुद्ध की हैं।

     मथुरा कला (150-300 ई.): देशी कला केंद्र, जो जैन धर्मानुयायियों द्वारा मथुरा में प्रथम शती में आरंभ किया गया। इसे कुषाण शासकों का संरक्षण मिला। मथुरा कला यथार्थवादी न होकर आदर्शवादी थी, जिसमें मुखाकृति में आध्यात्मिक सुख व शांति व्यक्त की गयी थी। इसमें बलुआ लाल पत्थर मानव प्रयुक्त होता था। सबसे पहली बुद्ध की मूर्ति मथुरा कला के अंतर्गत बनी। 

    अमरावती कला (150 ई.पू.-400 ई.) सफेद संगमरमर से बनने वाली इस शैली की प्रतिमाओं का विकास दक्षिण भारत में कृष्णा और गोदावरी नदियों के मध्य अमरावती नामक स्थान पर हुआ। इस शैली की प्रतिमाओं में शारीरिक सौंदर्य, भावनाओं की अभिव्यक्ति आदि उल्लेखनीय है। सातवाहन राजाओं के संरक्षण में नासिक, भोज, बेदसा और कार्ले में निर्मित बौद्ध चैत्यों (मठों) पर इसी शैली का प्रभाव है। अमरावती में बुद्ध द्वारा एक मतवाले हाथी को वश में किये जाने की कथा उत्कीर्ण है।

     कुषाण काल में विष्णु, सरस्वती कुबेर आदि की मूर्तियां बनायी जाती थीं। 

    इस काल में चतुर्मुख शिव लिंग का निर्माण होने लगा था। 

    सांची का स्तूपः यह स्तूप भारत का सबसे महत्वपूर्ण स्तूप है। यह मूल रूप से अशोक द्वारा बनवाया गया था। शुंग शासन काल में इसका आकार दुगुना करवा दिया गया था। इस स्तूप में बुद्ध के जीवन की चार प्रमुख घटनाएं - जन्म, बोधिसत्व की प्राप्ति, धर्म चक्र पवर्तन और महापरिनिर्वाण के चित्र अंकित हैं। 

    भरहूत स्तूपः यह म.प्र. के सतना जिले में है। अब मुख्य स्तूप नष्ट हो चुका है।

    नागार्जुन कोंडा: इक्ष्वाकुओं ने नागार्जुन कोंडा का स्तूप बनवाया था। यह स्तूप उत्तर भारत के स्तूप से थोड़ा भिन्न है। बाहर की तरफ इसके गुबंद को नक्काशीदार संगमरमर के पत्थरों से अलंकृत किया गया है। इसमें सफेद हाथी के रूप में गर्भ में बुद्ध का प्रवेश चित्रित है।

    बोधगया का स्तूपः यहीं पर अशोक ने बोधिमठ का निर्माण करवाया था। अब शुंग काल के बने कुछ खंभे ही बचे हैं।

    • झंडियाल मंदिर - तक्षशिला
    • नागरी का शंकरशान मंदिर - राजस्थान
    •भगवती मंदिर - बेसनगर (म.प्र.)
    • बहुकोणीय शिखरवाला - नागार्जुन कोंडा मंदिर
    • चीर-तोपे स्तूप - तक्षशिला 

    मौर्योत्तर काल PART 2
    मौर्योत्तर काल PART 1

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