मौर्योत्तर काल PART 2
वाकाटक वंश
वाकाटक वंश का संस्थापक विंध्यशक्ति था। सातवाहनों के बाद दक्कन का वह महत्वपूर्ण शासक था
विंध्यशक्ति को 'वाकाटक वंशकेतु' भी कहा गया है।
'हरितिपुत्र प्रवर सेन' इस वंश का सबसे महान शासक था तथा उसकी उपाधि 'सम्राट' थी।
हरितिपुत्र प्रवरसेन ने चार अश्वमेध यज्ञ तथा 7 प्रकार के अन्य यज्ञ किये।
वाकाटक शासक रुद्रसेन द्वितीय का विवाह चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य की पुत्री प्रभावती से हुआ था।
प्रभावती के पुत्र दामोदर सेन ने 'प्रवरसेन' की उपाधि धारण की थी। दामोदर सेन ने 'प्रवरपुर' नगर की स्थापना की।
वाकाटक शासक प्रवरसेन द्वितीय ने 'सेतुबंध' (रावणवहो) नामक पुस्तक की रचना की थी। यह पुस्तक महाराष्ट्रीय लिपि में थी। वाकाटक शासक शैव थे।
सर्वसेन ने वाकाटकों की वत्सगुल्मा शाखा की स्थापना की थी। वत्सगुल्मा उसकी राजधानी थी।
वाकाटकों की मुख्य शाखा की राजधानी पुरीक थी।
अजन्ता की गुफा संख्या 16 का निर्माण वाकाटक शासक हरिषेण के मंत्री बराहदेव ने करवाया था।
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कलिंग राज्य के विषय में जानकारी के प्रमुख स्रोत अशोक के लेख तथा खारवेल का हाथीगुंफा अभिलेख हैं। इसके अतिरिक्त अनेक ग्रंथों जैसे अष्टाध्यायी, पुराण, दशकुमार चरित, उत्तराध्ययनसूत्र आदि भी हैं।
अभी तक कलिंग के चेदि वंश के तीन शासकों के नाम ही ज्ञात हैं:
1. महामेघवाहन
2. खारवेल
3. महाराज कुदेप (जिसका उल्लेख पातालपुर गुहा लेख में हुआ है। )
खारवेल की उपाधि ऐरा, महाराज, महामेघवाहन एवं कलिंगाधिपति थी।
हाथी गुफा से खारवेल का अभिलेख प्राप्त हुआ है, जो अशोक के पश्चात् राजा खारवेल की सैन्य क्षमता, उसकी विजयों तथा जीवन-कृतियों की गाथा से युक्त है। इस अभिलेख की लिपि बेसनगर अभिलेख तथा अशोक कालीन लिपि के बाद की प्रतीत होती (भाषा-प्राकृत, डॉ. जायसवाल) है।
खारवेल, कलिंग पर शासन करने वाले तीसरे वंश का शासक था, जो अपने वंश का नाम 'चेति' (चेदि) बताता है।
खारवेल की राजधानी कलिंगनगर थी।
नवें वर्ष में खारेवल ने उत्तरी भारत की विजय के उपलक्ष्य में प्राची नगर के दोनों किनारों पर 'महाविजय प्रासाद' का निर्माण करवाया।
13वें वर्ष में खारवेल ने कुमारी पहाड़ी (उदयगिरि-खंडगिरि) पर जैनियों के निवासार्थ गुहा विहारों का निर्माण करवाया। उसने उदयगिरि में 19 तथा खंडगिरि में 16 गुहा विहार बनवाये।
खारवेल ने जैनियों के लिए विशाल सभा भवन का निर्माण कराया था, जिसमें विशाल स्तम्भ थे। यह 64 स्थापत्य कृति-समूहों से अलंकृत किया गया था।
प्रमाणों के आधार पर खारवेल के शासनारूढ़ होने की तिथि 44 ई.पू. निर्धारित की जा सकती है।
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कलिंग शासक खारवेल (चेदि वंश)
कलिंग राज्य के विषय में जानकारी के प्रमुख स्रोत अशोक के लेख तथा खारवेल का हाथीगुंफा अभिलेख हैं। इसके अतिरिक्त अनेक ग्रंथों जैसे अष्टाध्यायी, पुराण, दशकुमार चरित, उत्तराध्ययनसूत्र आदि भी हैं।
अभी तक कलिंग के चेदि वंश के तीन शासकों के नाम ही ज्ञात हैं:
1. महामेघवाहन
2. खारवेल
3. महाराज कुदेप (जिसका उल्लेख पातालपुर गुहा लेख में हुआ है। )
खारवेल की उपाधि ऐरा, महाराज, महामेघवाहन एवं कलिंगाधिपति थी।
हाथी गुफा से खारवेल का अभिलेख प्राप्त हुआ है, जो अशोक के पश्चात् राजा खारवेल की सैन्य क्षमता, उसकी विजयों तथा जीवन-कृतियों की गाथा से युक्त है। इस अभिलेख की लिपि बेसनगर अभिलेख तथा अशोक कालीन लिपि के बाद की प्रतीत होती (भाषा-प्राकृत, डॉ. जायसवाल) है।
खारवेल, कलिंग पर शासन करने वाले तीसरे वंश का शासक था, जो अपने वंश का नाम 'चेति' (चेदि) बताता है।
खारवेल की राजधानी कलिंगनगर थी।
नवें वर्ष में खारेवल ने उत्तरी भारत की विजय के उपलक्ष्य में प्राची नगर के दोनों किनारों पर 'महाविजय प्रासाद' का निर्माण करवाया।
13वें वर्ष में खारवेल ने कुमारी पहाड़ी (उदयगिरि-खंडगिरि) पर जैनियों के निवासार्थ गुहा विहारों का निर्माण करवाया। उसने उदयगिरि में 19 तथा खंडगिरि में 16 गुहा विहार बनवाये।
खारवेल ने जैनियों के लिए विशाल सभा भवन का निर्माण कराया था, जिसमें विशाल स्तम्भ थे। यह 64 स्थापत्य कृति-समूहों से अलंकृत किया गया था।
प्रमाणों के आधार पर खारवेल के शासनारूढ़ होने की तिथि 44 ई.पू. निर्धारित की जा सकती है।
इण्डोग्रीक शासक
मार्योत्तर काल में सबसे पहला आक्रमण यूनानियों ने किया।
250 ई.पू. में बैक्ट्रिया राज्य की स्थापना उसके गर्वनर डियोडोटस प्रथम ने की। इन्हें इंडो-ग्रीक अथवा इंडो-बैक्ट्रियन राज्य के नाम से जाना जाता है। बैक्ट्रिया की राजधानी बल्ख थी।
सिकन्दर के बाद भारत पर आक्रमण करने वाला पहला यवन आक्रमणकारी डेमेट्रियस प्रथम अथवा दमित्र था।
उसने सिन्ध विजय कर आगे बढ़ते हुए अवन्ति (उज्जैन), माध्यमिका और भड़ौंच पर अधिकार जमा लिया।
परन्तु कलिंग के शासक खारवेल के विरुद्ध वह सफल नहीं हो सका तथा शुंग सम्राट पुष्यमित्र के पौत्र वसुमित्र ने भी राजपूतानें में उसे परास्त करके वापस भगा दिया।
डेमेट्रियस की राजधानी साकल थी। उसने यूनानी और खरोष्ठी लिपि में सिक्के चलाये।
डेमेट्रियस के पश्चात यूकेटाइडस ने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनायी।
डेमेट्रियस के बाद भारत में यवनों के दो वंशजों ने राज्य किया। इन दोनों वंशों के 35 शासकों का उल्लेख मिलता है। इन्होंने लगभग 100 वर्षों तक भारत पर शासन किया।
पेरीप्लस ऑफ एरिथ्रियन सी के अनुसार एपोलोडोट्स के सिक्के मिनाण्डर के सिक्कों के साथ बेरीगाजा में चलते थे।
मिनान्डर हिन्द-यूनानी शासकों में सबसे महान शासक था। डेमेट्रियस के सेनापति के रूप में यह भी भारत आया था।
महायान बौद्ध ग्रन्थ 'मिलिन्दपन्हो' में मिलिन्द के जीवन और तथा उसके क्रिया-कलापों का वर्णन है। इलाहाबाद के रेह नामक स्थान से इसका एक अभिलेख भी मिला है।
मिनान्डर की राजधानी साकल या स्यालकोटथी । वह पहला हिन्द यूनानी शासक था जिसनेबौद्ध धर्म में गहरी रूचि दिखायी तथा बौद्धबन गया।
मिलिन्दके सिक्कों पर धर्मचक्र, हाथी के चित्रतथा धमिकस शब्द मिले हैं। मिनान्डर इक समय उसकी राजधानी स्यालकोट पाटलीपुत्र के समान महत्वपूर्ण हो गयीं। उसके सिक्के उत्तर में काबुल से लेकर दिल्ली मथुरा तक मिले हैं, उसके सिक्के भड़ौंच के बाजार में खूब चलते थे।
एंटिअलकिडस अंतिम महत्वपूर्ण यवन शासक था। एंटिअलकिडस ने ही तक्षशिला निवासी हेलियोडोरस को अपने राजदूत के रूप में भारतीय राजा काशीपुत्र मांगभद्र के दरबार में भेजा था। बेसनगर के गरूड़ स्तम्भ में हेलियोडोरस ने अपने को भागवत कहा है।
शक
शकों की प्रारम्भिक जानकारी दारा के नक्शी रूस्तम प्रस्तर लेख से मिलती है। शक या सिथियन मध्य एशिया के निवासी थे। इनका निवास स्थान सरदरिया था जहां से ये यू-ची कबीले द्वारा 165 ई.पू. में विस्थापित कर दिए गये।
सीस्तान या शकस्थान (हेलमंड घाटी) से भी वे पार्थियनों द्वारा खदेड़ दिये गये। अतएव विवश होकर शकों को कंधार, बोलन आदि दर्रा से होकर सिंधु प्रदेश पर आक्रमण करना पड़ा।
भारत में शकों की दो शाखाएं सईवैग या मुरूण्ड तथा ईरानी आयीं। भारत में शकों की पांच शाखाएं थीं; प्रथम अफगानिस्तान में, द्वितीय पंजाब में, तृतीय मथुरा में चतुर्थ पश्चिम भारत में तथा पंचम ऊपरी दक्कन में।
तक्षशिला का प्रथम शक शासक मोयेज (डवलमे) अथवा मोग था। यही भारत का प्रथम शक शासक था। तक्षशिला ताम्रपत्र में इसका नाम महाराज मोग उत्कीर्ण है।
इसने गंधार में प्रथम शक राज्य की स्थापना की। तक्षशिला इसकी राजधानी थी। इसका साम्राज्य पुष्कलावती, कपिशा तथा पूर्व में मथुरा तक विस्तृत था।
इसने अपने नाम के सिक्के ढलवाये जिन पर यूनानी देवताओं के अतिरिक्त बुद्ध एवं शिव की आकृतियां खुदी हुई हैं।
नहपान (119-124 ई.) क्षहरात वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक नहपान था। 'पेरिप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी' पुस्तक में इसका उल्लेख है। उसके तथा उसके दामाद उषावदात के अभिलेखों से पता चलता है कि उसने महाराष्ट्र का एक बड़ा भाग सातवाहनों से जीत लिया था। लेकिन सातवाहन नरेश गौतमी पुत्र शातकर्णी से वह हार गया था। नहपान ने अपनी मुद्राओं पर राजा की उपाधि धारण की थी।
नहपान के दामाद ऋषभदत्त (उषावदात) के गुहा लेख नासिक तथा कार्ले (पूना) से मिले हैं।
उज्जयनि के शक क्षत्रप (कार्दमक क्षत्रप 130 ई-388 ई) इस वंश का संस्थापक यशोमतिक था। लेकिन पहला स्वतंत्र शासक चष्टन था।
रुद्रदामन (130-150 ई.) इस वंश का तथा समूचे शक वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक था। इसने महाक्षत्रप की उपाधि धारण की थी। रुद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेख संस्कृत में है। उसने दो बार सातवाहन शासक शिवश्री शातकर्णी को हराया।
सुदर्शन झील की मरम्मत उसी के समय करायी गयी। रुद्रदामन, व्याकरण, राजनीति संगीत एवं तर्क शास्त्र का पंडित था।
वह वैदिक धर्म का अनुयायी था तथा संस्कृत भाषा को राज्याश्रय प्रदान किया। उसके समय उज्जैयनी शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र बन गया था।
शकों का अंतिम शासक रूद्रसिंह तृतीय था जिसे गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय ने परजित कर शक राज्य को अपने राज्य में मिला लिया।
पहलव अथवा पार्थियन
पार्थियन लोगों का मूल स्थान ईरान में कहीं था और वहीं से वे भारत की ओर आये।
भारत का प्रथम पार्थियन शासक 'माउस' (90-70 ई.पू.) था। गंधार प्रदेश में मिले सिक्कों पर खरोष्ठी लिपि में माउस का नाम मोथ मिलता है।
इस वंश का सबसे प्रसिद्ध शासक 'गोंदोफर्निस (20 ई.-41 ई.)' था। उसके कार्यों का पता तख्त-ए-बाही अभिलेख से चलता है। यह खरोष्ठी लिपि में उत्कीर्ण है, इसमें गोंदोफर्नीज को गुदण्हर कहा गया है। इसकी राजधानी तक्षशिला थी।
गोंदोफर्निस के शासनकाल में ही भारत में प्रथम ईसाई धर्म प्रचारक सेंट थामस आया था।
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