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गुप्तकाल 


 • 1888 ई. में डॉ. फ्लीट द्वारा प्रकाशित 'कोर्पस इन्सक्रिप्शन इंडिकारम' के तीसरे भाग में गुप्त राजाओं के अभिलेख हैं।

 • स्कन्दगुप्त के भीतरी अभिलेख से ज्ञात होता है कि कुमार गुप्त के शासन के अन्तिम दिनों में गुप्त साम्राज्य पर हूणों का आक्रमण हुआ था।

 • हरिषेण विरचित समुद्रगुप्त का प्रयाग प्रशस्ति अभिलेख समुद्रगुप्त के विजय अभियान पर विशद प्रकाश डालता है। 

• मेहरौली लौह-स्तंभ अभिलेख में राजा चन्द्र (चंद्रगुप्त विक्रमादित्य) का वर्णन है। व्यास नदी के निकट एक पहाड़ी पर इसके मौलिक स्थान से दिल्ली का एक शासक इसे दिल्ली के निकट मेहरौली लाया था। . स्कंदगुप्त स्कंदगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख से ज्ञात होता है कि सौराष्ट्र गुप्त साम्राज्य का अंग था।

 • काशी प्रसाद जायसवाल का मत है कि गुप्त सम्राट जाट और मूलतः पंजाब के निवासी थे। उनका यह मत 'कौमुदीमहोत्सव' नाटक पर आधारित है। कौमुदीमहोत्सव में लिच्छवियों को म्लेच्छ तथा चंडसेन को 'कारस्कर' ग (निम्नजातीय) बताया गया है। इस आधार पर चन्द्रगुप्त प्रथम को शूद्र बताया गया है। जायसवाल ने, चन्द्रगोमिन् के व्याकरण की एक सूत्रवृत्ति में 'अजयत् जर्टो हूणान्' अर्थात् जर्ट लोगों ने हूणों को जीता था, के आधार पर गुप्तों को जर्ट अथवा जाट बताया है।

 • सिरपुर के लेख में चन्द्रगुप्त नामक राजा को चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहा गया है। इस चन्द्रगुप्त की पहचान. गुप्तवंशी चन्द्रगुप्त प्रथम से की जाती है और इस आधार पर गुप्तों को चन्द्रवंशी क्षत्रिय माना गया है। गुप्तकालीन अभिलेख . भीतरी स्तंभ लेखः स्कंदगुप्त . सुपिया (रीवा) लेखः स्कन्दगुप्त 

• प्रयाग प्रशस्तिः समुद्रगुप्त 
• जूनागढ़ अभिलेख: स्कंदगुप्त . 
नालन्दा अभिलेखः यशोधर्मन
 • विलसड़ स्तंभ लेखः कुमारगुप्त
• सिरपुर अभिलेखः महासिवगुप्त 

आरंभिक गुप्त शासक 


• कुषाण साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर गुप्त साम्राज्य का उदय हुआ। संभवतः ये लोग कुषाणों के सामन्त थे और उनके बाद उनका स्थान ले लिया। .


 श्रीगुप्त


• गुप्तवंश का संस्थापक श्रीगुप्त को माना जाता है। समुद्रगुप्त ने स्वयं को प्रयाग प्रशस्ति में श्रीगुप्त का प्रपौत्र कहा है। श्रीगुप्त की उपाधि महाराज थी। प्रभावती गुप्त के पूना ताम्रपत्र अभिलेख में श्री गुप्त को गुप्त वंश का 'आदिराज' बताया गया है। महाराज गुप्त अथवा श्रीगुप्त ने लगभग 275 ई. में गुप्त राजवंश की स्थापना की। 

• श्रीगुप्त के पुत्र व उत्तराधिकारी के रूप में घटोत्कच का उल्लेख किया गया है। इनकी भी उपाधि 'महाराज' थी। 

• स्कन्दगुप्त के सुपिया (रीवा) के लेख में गुप्तों की वंशावली घटोत्कच से आरंभ होती है। 




    चन्द्रगुप्त प्रथम (319-335 ई.) 


    • गुप्तवंशावली में सबसे पहला वास्तविक शासक चन्द्रगुप्त प्रथम था। वह 320 ई. में स्वतंत्र शासक बना और 'महाराजधिराज' की उपाधि धारण की। अपनी शक्ति को पूर्वी भारत में सम्मान दिलाने के लिए चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया, जैसा कि मुद्रा साक्ष्यों से स्पष्ट है। यह समुद्रगुप्त के सिक्कों से भी ज्ञात होता है, जहांसमुद्रगुप्त अपने को लिच्छविदौहित्र' कहकर गर्व का अनुभव करता है।

     • चन्द्रगुप्त प्रथम ने 310ई. में गुप्त संवत चलाया। गुप्त संवत व शक संवत के बीच 241 वर्षों का अंतर था। .

     एक प्रकार के स्वर्ण सिक्के, जिन्हें चन्द्रगुप्त कुमारदेवी प्रकार, राजा रानी प्रकार; विवाह प्रकार अथवा लिच्छवि प्रकार कहा जाता है, चन्द्रगुप्त प्रथम ने जारी किये थे। इन सिक्कों के मुख भाग पर चन्द्रगुप्त और कुमारदेवी की आकृति है तथा पृष्ठ भाग पर सिंहवाहनी देवी (दुर्गा) की आकृति तथा ब्राह्मी लिपि में मुद्रालेख 'लिच्छवय:' उत्कीर्ण है। इस प्रकार के सिक्के गाजीपुर, मथुरा से लेकर बयाना (राजस्थान) तक पाये गये हैं।


     समुद्रगुप्त (335-380 ई.)


     • चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र तथा उत्तराधिकारी समुद्रगुप्त ने गुप्त राज्य का अपार विस्तार किया। 

    हरिषेण द्वारा रचित प्रयाग प्रशस्ति में चन्द्रगुप्त प्रथम द्वारा समुद्रगुप्त को भरी सभा में राज्य प्रदान करने का वर्णन है। कवि एवं लेखक हरिषेण समुद्रगुप्त का सन्धिविग्रहिक सचिव था। 

    प्रयाग प्रशस्ति के प्रारंभ में अशोक का लेख खुदा हुआ है। इसमें बौद्ध संघ के विभेद को रोकने के लिए कौशाम्बी के महामात्रों को दिया गया आदेश है। कनिंघग के अनुसार प्रयाग प्रशस्ति लेख मूलतः कौशाम्बी में खुदवाया गया था। समुद्रगुप्त के लेख की प्रारम्भिक पंक्तियां पद्यात्मक तथा बाद की गद्यात्मक हैं। इस प्रकार यह संस्कृत की चम्पू शैली का एक सुन्दर उदाहरण है इसे 'काव्य' कहा गया है। 

    एरण (मध्य प्रदेश के सागर जिले में स्थित) नामक स्थान से भी समुद्रगुप्त का एक लेख मिला है। इस लेख से पता चलता है कि ऐरेकिण प्रदेश (एरण) उसका भोगनगर था। 

    'काच' नामधारी कुछ सिक्कों के आधार पर कुछ विद्वानों ने 'काच' को समुद्रगुप्त का विद्रोही भाई बताया है और कुछ ने 'काच' और समुद्रगुप्त दोनों को एक ही बताया है। 

    • समुद्रगुप्त की दिग्विजयों का वर्णन प्रयाग प्रशस्ति में किया गया है। उसके दिग्विजय का उद्देश्य प्रयाग प्रशस्ति के शब्दों में 'सम्पूर्ण पृथ्वी को जीतना' (धरणिबन्ध) था।

     • समुद्रगुप्त द्वारा विजित स्थान और देश पांच समूहों में बांटे जा सकते हैं।

     • आयावर्त के प्रथम युद्ध में समुद्रगुप्त तीन शक्तियों को पराजित किया। वे तीन शक्तियां थीं-अहिच्छत्र के नागवंशी शासक अच्युत, पद्मावती (ग्वालियर जिला) के. नागवंशी शासक नागसेन तथा कोतकुलज।

     समुद्रगुप्त दक्षिण के जिन 12 राज्यों को अपने अधीन कर लिया उनके नाम हैं- (1) कोशल (2) महाकान्तर, (3) कोराल (4) पिष्टपुर (5) कोटद्वार (6) एरण्डपल्ल (7) काची (8) बेंगी (9) देवराष्ट्र (10) कुस्थलपुर (11) पालक्क (12) अवमुक्त उनके प्रति किदार कुषाण अपनायी गयी नीति थी 'ग्रहणमोक्षानुग्रह'। 

    • आर्यावर्त के द्वितीय युद्ध में समुद्रगुप्त ने उत्तर भारत के राजाओं का विनाश कर उनके राज्यों को अपने साम्राज्य में मिला लिया। इस नीति को प्रशस्ति में 'प्रसभोद्धरण' कहा गया है। 

    समुद्रगुप्त द्वारा पराजित विदेशी शक्तियां थीं दैवपुत्रषाहिषाहानुषाहि (पश्चिमी पंजाब के कुषाण शासक), शक (पश्चिमी भारत), मुरूंड, सिंहल (लंका द्वीप)। समुद्रगुप्त का समकालीन कुषाण शासक तथा शक शासक - रूद्रसिंह तृतीय था। उनके प्रति आत्मनिवेदन कन्योपायन गुरुत्मंदक की नीति अपनायी। 

    समुद्रगुप्त ने निम्न सीमान्त राज्यों को अपने वश में कर लिया- समतट (पूर्वी बंगाल), डवाक (असम), कामरूप, नेपाल तथा कर्तृपुर। सीमांत राज्यों के लिए समुद्रगुप्त ने सर्वकरदानाज्ञाकरण- प्रणामागमन' की नीति अपनाई अर्थात् 'वे समुद्रगुप्त को सभी प्रकार के करों को देते थे। समुद्रगुप्त ने जिन 9 गण राज्यों को नष्ट किया उनके नाम हैं (1) अमीर (2) यौद्धेय (3) मद्रक (4) खरपरिक (5) मालवा (6) अर्जुनायन (7) काक (8) आर्जुन (9) सनकानीक। 

    • समुद्रगुप्त की विजय यात्राओं की सफलता के आधार पर विन्सेंट स्मिथ ने उसे भारतीय 'नेपोलियन' की संज्ञा प्रदान की है। 

    • एक चीनी स्रोत के अनुसार, श्रीलंका के राजा मेघवर्मन् ने गया में बुद्ध का एक मंदिर बनवाने की अनुमति प्राप्त करने के लिए समुद्रगुप्त के पास एक दूत भेजा था। जिसे समुद्रगुप्त द्वारा अनुमति दी दे गयी।

     • अपनी विजयों के उपरान्त समुद्रगुप्त ने अश्वमेध यज्ञ किया जिसका परिचय सिक्कों और उसके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों से प्राप्त होता है।

     • समुद्रगुप्त के सिक्कों पर मुद्रित 'अप्रतिरथ', व्याघ्रपराक्रम', 'पराक्रमांक' जैसे विरुद्ध उसके गौरवमय जीवन चरित का स्पष्ट साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं। - समुद्रगुप्त को 'कविराज' भी कहा गया है। 

    • समुद्रगुप्त ने 6 प्रकार की मुद्राएं- गरूड़, धनुर्धर, परशु, अश्वमेध, ब्याघ्रहता एवं वीणासरण जारी करवायी, इसमें गरूड़ मुद्राएं सर्वाधिक लोकप्रिय थीं। 

    • स्कंदगुप्त के भितरी लेख में समुद्रगुप्त को अश्वमेध करने वाला कहा गया है। 

    • प्रभावती गुप्ता के पूना ताम्रलेख में समुद्रगुप्त को 'अनेक अश्वमेध यज्ञों को करने वाला' (अनेकाश्वमेधयाजिन) कहा गया है। 

    • अपनी विजयों के परिणामस्वरूप समुद्रगुप्त ने एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्यपर्वत तक तथा पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में पूर्वी मालवा तक विस्तृत था। कश्मीर, पश्चिमी पंजाब, पश्चिमी राजपूताना, सिंध तथा गुजरात को छोड़कर समस्त भारत 1 इसमें सम्मिलित था। पाटलिपुत्र इस विशाल साम्राज्य की राजधानी थी। 

    • समुद्रगुप्त महान संगीतज्ञ या तथा वीणावादन में निपुण था।

     • प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान बसुबंधु संभवतः समुद्रगुप्त का मंत्री था। 

    • प्रशस्ति में समुद्रगुप्त को 'सर्वराजोच्छेता' धर्मप्राचीरबंधः (धर्म की प्राचीर) तथा 'पृथ्वी पर निवास करने वाला देवता' भी कहा गया है। 

    • समुद्रगुप्त के व्याघ्रहनन प्रकार के सिक्कों के एक ओर व्याघ का आखेट करते हुए राजा की आकृति तथा दूसरी ओर मकरवाहिनी गंगा की आकृति उत्कीर्ण है। इससे गंगा-घाटी की विजय भी इंगित होती है। 

    वीणावादन प्रकार के सिक्कों के एक ओर वीणा बजाते हुए राजा की आकृति तथा दूसरी ओर कार्नकोपिया लिए हुए लक्ष्मी की आकृति अंकित है।


    चंद्रगुप्त द्वितीय 'विक्रमादित्य' (380-415 ई.) 


    • चन्द्रगुप्त द्वितीय से संबंधित अभिलेख हैं- मथुरा स्तंभ, मेहरौली का लौह स्तंभ, उदयगिरि के दो लेख, गढ़वा तथा सांची से प्राप्त अभिलेख।

     • चन्द्रगुप्त द्वितीय का अन्य नाम देवराज तथा देवगुप्त भी था। उसने नागवंशीय राजकुमारी कुबेरनागा से विवाह किया। 

    • पश्चिम भारत के शक शासक रूद्रसिंह तृतीय को पराजित किया और इस उपलक्ष्य में उसने 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की। शकों पर विजय के कारण उसे 'शकारि' भी कहा गया है। 

    • मेहरौली लौह-स्तंभ लेख में उसके बंगाल विजय तथा सिंधु नदी के पार बाहलीकों पर विजय का उल्लेख है। 

    • चन्द्रगुप्त ने उज्जैन को द्वितीय राजधानी बनायी। वहां पर उसके दरबार में नवरत्न विद्वान जैसे- कालिदास, अमरसिंह, धन्वंतरि, बाराहमिहिर आदि रहते थे।

     • उसके काल में चीनी यात्री फाह्यान (399-414 ई.) भारत आया था। फाहीयान के अनुसार उसके काल में मृत्युदंड नहीं दिया जाता था। उसके स्वर्ण के सिक्के 'दीनार' तथा चांदी के सिक्के 'रूप्यक' कहलाते थे।

     • चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का विवाह वकाटक शासक रूद्रसेन द्वितीय से किया।

     'देवीचन्द्रगुप्तम्' नामक नाट्य ग्रंथ में चन्द्रगुप्त द्वितीय से पूर्व रामगुप्त नामक शासक का वर्णन किया गया है। 



    कुमारगुप्त (415-455 ई.) 

    • चन्द्रगुप्त द्वितीय का पुत्र कुमारगुप्त के अभिलेख हैं -गढ़वा अभिलेख, मथुरा तथा सांची अभिलेख, उदयगिरि-गुहालेख, दामोदरपुर ताम्रपत्र, बिलासढ़ तथा तुमैन अभिलेख।

     • वह कार्तिकेय का उपासक था। उसने 'मयूर शैली' की मुद्रा जारी किये। मध्य भारत में रजत सिक्कों का प्रचलन उसके काल में हुआ। उसकी उपाधि 'महेंद्रादित्य' थी। उसने नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की। उसने अश्वमेघ यज्ञ भी किया था। 

     स्कन्दगुप्त (455-467 ई.)


     • जूनागढ़ अभिलेखः यह स्कन्दगुप्त का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अभिलेख है। इसी अभिलेख से ज्ञात होता है कि सुराष्ट्र प्रान्त में उसने पर्णदत्त को अपना राज्यपाल नियुक्त किया था तथा गिरनार के पुरपति चक्रपालित द्वारा सुदर्शन झील के बांध का पुनर्निर्माण कराया गया था।

     • बिहार स्तंभः बिहार प्रान्त के पटना के पास बिहार नामक स्थान से यह बिना तिधि का लेख मिला है। इसमें गुप्त राजाओं के नाम तथा कुछ पदाधिकारियों के नाम मिले हैं। 

    इंदौर ताम्रपत्रः इंदौर, उ.प्र. प्रान्त के बुलंदशहर जिले में स्थित एक स्थान है। इस ताम्रपत्र में सूर्य की पूजा तथा सूर्य के मंदिर में दीपक जलाये जाने के लिए धन दान दिये जाने का विवरण मिलता है। 

    भितरी स्तंभ लेखः उ.प्र. प्रांत के गाजीपुर जिले से प्राप्त इस अभिलेख में पुष्यमित्रों तथा हूणों के साथ स्कंदगुप्त के युद्ध का वर्णन मिलता है। कहौम अभिलेखः उ.प्र. प्रांत के गोरखपुर जिले से प्राप्त इस अभिलेख से ज्ञात होता है कि मद्र नामक एक व्यक्ति ने पांच जैन तीर्थंकरों की प्रतिमाओं का निर्माण करवाया था। 

    सुपिया का लेखः मध्यप्रदेश के रीवा जिले से प्राप्त इस अभिलेख में गुप्तवंश को घटोत्कच वंश कहा गया है। 

    गढ़वा शिलालेखः उ.प्र. प्रान्त के इलाहाबाद जिले से प्राप्त यह अभिलेख स्कंदगुप्त का अन्तिम अभिलेख है। स्कन्दगुप्त के प्रसिद्ध अभिलेख हैं- जूनागढ़, कहोम तथा गढ़वा शिलालेख, सुपिया व भितरी स्तंभ लेख, बिहार स्तंभ तथा इंदौर ताम्र पत्र लेख।

     • जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार सौराष्ट्र प्रान्त में स्कन्दगुप्त का राज्यपाल पर्णदत्त था तथा गिरनार के चक्रपालित ने सुदर्शन झील का पुनर्निमाण करवाया था। इंदौर ताम्रपत्र में सूर्य मंदिर में पूजा हेतु दान का विवरण है। भितरी स्तंभ में हूणों के साथ युद्ध का वर्णन है। जूनागढ़ अभिलेख में भी हूणों के आक्रमण एवं स्कन्दगुप्त की सफलता का उल्लेख है।

     • उसके चांदी के सिक्कों पर उसकी उपाधि परमभागवत एवं विक्रमादित्य है। काठियावाड़ में उसने बैल प्रकार के, मध्य भारत में बेदि प्रकार के तथा मध्य भारत में उसने गरूड़ प्रकार के सिक्के चलवाये। 

    • स्कन्दगुप्त को 'देश-रक्षक' भी कहा गया है। इसी नाम का उल्लेख किया है। .466 ई. में उसने चीन के सांग सम्राट के दरबार में दूत भेजा था। 

    स्कन्दगुप्त की मृत्यु के बाद गुप्त वंश का हास आरंभ हो गया। 


    पतन काल (467-550 ई.)



     • पुरूगुप्त (467-476 ई.): स्कंदगुप्त का सौतेला भाई पुरूगुप्त कमजोर शासक था। वह बौद्ध गुरू वसुबंधु का शिष्य था। • कुमार गुप्त द्वितीय: इसका एक लेख सारनाथ में मिला है। कुमार गुप्त प्रथम द्वारा निर्मित 'दशपुर सूर्य मंदिर' का इसने जीर्णोद्धार कराया। 

    • बुध गुप्तः इसके लेख सारनाथ तथा एरण से प्राप्त हुए हैं। इसने शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर लिया। 

    • नरसिंह 'बालादित्य': इस समय तक गुप्त साम्राज्य तीन राज्यों मगध, मालवा तथा बंगाल में बंट चुका था। इसकी उपलब्धि थी कि इसने हूण शासक मिहिरकुल को पराजित किया तथा अपने राज्य में अनेक स्तूप तथा बिहार बनवाये। 

    • भानुगुप्तः एरण अभिलेख (510 ई.) में भानुगुप्त के मित्र गोपराज की पत्नी के सती हो जाने के का उल्लेख है। भानुगुप्त एवं हूण के बीच युद्ध को 'स्वतंत्रता संग्राम' भी कहा गया है। 

    • गुप्त वंश का अंतिम शासक 'विष्णुगुप्त' था।


     गुप्तकालीन प्रशासन 

    • मौर्यों के विपरीत गुप्तों ने महाराजाधिराज तथा परमभट्टारक जैसी उपाधियां धारण की जिससे ज्ञात होता है कि गुप्तों ने अनेक छोटे-छोटे राजाओं पर शासन किया।

     • गुप्त शासक दैवी उत्पत्ति में विश्वास रखते थे। इस काल में राजा को पालन करने वाले विष्णु भगवान के रूप में देखा जाने लगा। प्रयाग प्रशस्ति में 'राज्यसभा का उल्लेख मिलता है। 

    • पहली बार दीवानी और फौजदारी कानून पारिभाषित किए गये। फाहियान के अनुसार दंड विधान अत्यंत कोमल था। 

    • गुप्त साम्राज्य प्रांतों में, प्रांत मुक्ति, विषयों (जिलों) में तथा विषय विथियों में तथा विधियां ग्रामों में विभाजित थे। 'कुमारामात्य' सबसे बड़े अधिकारी होते थे और प्रांतों के राज्यपाल बनाये जाते थे। ये राजपरिवार के सदस्य या राजकुमार होते थे। 

    • प्रांतों के प्रभारी 'उपरिक', विषय के 'विषयपति' तथा सीमांत प्रदेशों के शासक 'गोप्ता' कहलाते थे।

     जिले के शासन समिति के सदस्य नगर श्रेप्ति, सार्थवाह, प्रथम कुलीक तथा प्रथम कायस्थ होते थे। गांव का मुखिया ग्राम श्रेष्ठी की सहायता से कार्य करता था। 

    सभी केंद्रीय विभागों के प्रमुख

     सर्वाध्यक्ष                                   प्रतिहार अंत:पुर का रक्षक
     महाप्रतिहार                              राजमहल के रक्षकों का प्रधान 
    महादंडनायक                             मुख्य न्यायाधीश
     संधिविग्रहिक                             शांति एवं युद्ध मंत्री 
    पुस्तपाल                                    लेखा-जोख अधिकारी 
    दंडपाशिक                                  पुलिस अधिकारी 
    विनयस्थिति                                  धर्म संबधी अधिकारी 
    शौल्किक                                    सीमा शुल्क या भू कर अधिकारी 
    गौल्मिक                                     वन अधिकारी 
    ध्रुवाधिकरण                                 भूमिकर संग्रह अधिकारी 
    महाअक्षपटलिक                          आय-व्यय, लेखा-जोखा अधिकारी 

    • करों की कुल संख्या 18 थी। भूमि कर (भाग) उत्पादन का छठा भाग था। कर्मचारियों को वेतन के बदले भूमि अनुदान भी दिया जाता था। 

    • ग्राम समूह की छोटी इकाइयों को 'पेठ' तथा गांव के मुख्या को ग्रामिक या महत्तर कहा जाता था।

     • 'अग्रहार' सिर्फ ब्राह्मणों को दिया जाने वाला भू-दान था।

    • अमरकोष में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है। 

    क्षेत्रः खेती के लिए उपयुक्त भूमि 
    वास्तु: निवास योग्य भूमि 
    खिलः जो भूमि जोती नहीं जाती थी 
    अप्रहतः बिना जोती हुयी जंगली भूमि 
    चारागाहः पशुओं के चारा योग्य भूमि 

    गुप्तकालीन अर्थव्यवस्था 

    • गुप्तकाल में भूमिदान की प्रथा थी। राजा भूमि का मालिक माना जाता था। 

    • पश्चिम में सोपारा तथा भड़ौच एवं पूर्व में ताम्रलिप्ति प्रमुख बंदरगाह थे। 

    • भूमिकर (भाग), हिरण्य (नगद) अथवा मेय (अनाज के तौल) में दिया जा सकता था। 

    • गुप्त शासकों ने सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएं (दीनार) जारी किये। 

    • व्यापारियों की अपनी श्रेणियां होती थीं। जैसे कि कुलिक (उद्योग में कार्यरत जनसमूह)। ये स्वायत्त:शाली होती थी तथा इनके अपने नियम-कानून होते थे। 

    • फाहियान के अनुसार 'रोज के विनिमय में वस्तुओं की अदला-बदली या कौड़ियों का प्रयोग होता था। 

    • श्रेष्ठि या साहूकार बैंकों के रूप में कार्य करते थे, जबकि सार्थ कारवां के भ्रमणशील व्यापारी थे। 

    • चीन का रेशम (चीनांशुक) भारत में अत्यंत लोकप्रिय था। इस काल में चीन के साथ व्यापार में अत्यधिक वृद्धि हुआ। भारतीय वस्तुओं के बदले चीन से रेशम प्राप्त किया जाता था। 

    इथोपिया से हाथी दांत तथा अरब-फारस से घोड़े का आयात किया जाता था। 

    • गुप्त काल में व्यापार के ह्रास के संकेत मिलते हैं। रोम के साथ व्यापार का पतन हो गया। राज्य की आय का दूसरा प्रमुख स्रोत चुंगीकर था। 

    निर्यात की वस्तुएं थीं-कपड़े, सुगंधित द्रव्य, नील व दवाएं आदि। गुप्त काल का सर्वप्रमुख उद्योग कपड़ा उद्योग था। गुप्तकालीन समाज समाज में दास प्रथा का प्रचलन था तथा युद्धबंदियों को दास बनाने की प्रथा का प्रचलन था। 

    मयूरशर्मन नामक ब्राह्मण ने 18 बार अश्वमेघ यज्ञ कराया। 

    • हूणों को राजपूतों के एक कुल के रूप में स्वीकार्य कर लिया गया था। शुद्रों की स्थिति में सुधार हुआ, अब वे कृषक बन गये थे।

     • अछूतों की संख्या में वृद्धि हुई। 

    • न्याय व्यवस्था में वर्ण भेद बना हुआ था। ब्राह्ममण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की अग्नि से, वैश्य की जल से तथा शूद्र की परीक्षा विष से करने की बात कही जाती थी। 

    • गुप्त काल में प्रथम बार कायस्थ जाति का उल्लेख मिलता है। 

    • अग्रहार भूमि सभी करों से मुक्त होती थी। 

    • नारद ने दासों के 15 प्रकार तथा मनु ने प्रकार के दास बताए हैं साथ ही कहा है कि अपने स्वामी के पुत्र को जन्म देने के बाद दासी स्वतंत्र हो जाती थी। स्थायी दास को अहितक कहा जाता था। दासमुक्ति अनुष्ठान का वर्णन नारद ने किया है। नारी की स्थिति पहले की अपेक्षा कमजोर हो गयी थी। उस काल की शिक्षित महिलाएं शील व भट्टारिका थीं। समाज में अन्तर्जतीय विवाह का प्रचलन भी था। माता-पिता द्वारा दिये गये आभूषण स्त्री धन के अंतर्गत आते थे। कात्यायन स्त्री धन के समर्थक थे। 

    • कुमारगुप्त के मंदसौर अभिलेख में रेशमी वस्त्र बुनकरों द्वारा लाट प्रदेश छोड़कर दशपुर में बसने तथा सूर्य मंदिर के निर्माण का उल्लेख है। 

    कला एवं साहित्य

    • कला और साहित्य के विकास की दृष्टि से गुप्तकाल को भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग कहा जाता है। 

    • गुप्तकालीन मंदिर नागर शैली में बने हैं। मंदिरों में गर्भग्रह तथा शिखर का निर्माण होने लगा था। महत्वपूर्ण मंदिर थे- उदयगिरि का विष्णु मंदिर, एरण के बराह तथा विष्णु के मंदिर, भूमरा का शिवमंदिर, नाचनाकुठार का पार्वती मंदिर तथा देवगढ़ का दशावतार मंदिर। गुप्त काल का सर्वोत्कृष्ठ मंदिर झांसी जिले में देवगढ़ का दशावतार मंदिर है।

     • सारनाथ में धामेख स्तूप का निर्माण हुआ। 

    • एकमुखी एवं चतुर्मुखी शिवलिंग तथा शिव के अर्द्धनारीश्वर रूप की रचना सर्वप्रथम गुप्तकाल में हुई। 

    • अजंता की गुफाओं में कुछ चित्रांकन गुप्त काल के हैं जिसमें गुफा संख्या 16 में मरणासन् राजकुमारी का चित्र अत्यंत प्रशंसनीय है। ये चित्रांकन महायान बौद्ध शाखा से संबंधित हैं।

    • सर्वप्रथम सती होने का प्रमाण 510 ई. के भानुगुप्त के एरण अभिलेख में मिलता है। 

    अजंता की गुफा संख्या 16,17 तथा 19 गुप्तकाल की मानी गयी हैं।

    • मथुरा, सारनाथ तथा पाटलिपुत्र मुर्तिकला के केंद्र थे। गुप्तकालीन कला संयत व नैतिक है, इन पर गंधार कला का प्रभाव नहीं है। 

    • शुद्रक रचित मृच्छकटिकम् में एक ब्राह्मण एवं वेश्या के प्रेम का वर्णन है। राजकीय भाषा संस्कृत थी। 


    विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी 


    • आर्यभटीय के रचयिता आर्यभट्ट पाटलिपुत्र के निवासी थे। ईसा की पांचवी सदी के आरंभ में दाशमिक पद्धति ज्ञात थी। आर्यभट्ट ने सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। ब्रह्मगुप्त का ब्रह्म-सिद्धांत खगोलशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। 

    धन्वन्तरी तथा सुश्रुत इस युग के प्रख्यात वैद्य थे। 

    नवनीतकम इस काल की सबसे प्रसिद्ध चिकित्सा शास्त्र की पुस्तक है। 

    धर्म 

    • गुप्त काल में त्रिमूर्ति के अन्तर्गत ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश की पूजा आरंभ हुई। अब मूर्तिपूजा हिन्दू धर्म का सामान्य लक्षण बन गया। 

    • इस काल में ब्राह्मण धर्म का पुनर्स्थान हुआ तथा पुरोहितों की अपेक्षा यज्ञों को प्रोत्साहन मिला। 

    • इस काल में हरिहर की मूर्तियां बनाई गईं। जिसमें शिव व विष्णु को एक साथ दर्शाया गया। 

    • भागवत पूजा का आरंभ मौर्योत्तर काल में हुआ। इसके केन्द्र में विष्णु की पूजा है। ईसा-पूर्व दूसरी सदी में आकर वह नारायण नामक देवता से अभिन्न हो गया और नारायण विष्णु कहलाने लगा। पूर्व में नारायण 'भागवत' के नाम से जाने जाते थे। इसमें अवतारवाद का उल्लेख है। 

    पुष्यभूति वंश एवं हर्षवर्धन 


    • पूष्यभूति वंश के बारे में जानकारी के स्रोत हैं; बाणभट्ट का हर्षचरित, बांस खेड़ा (628 ई.) एवं मधुबन (631 ई.) ताम्रपत्र अभिलेख, नालंदा एवं सोनीपत ताम्रपत्र अभिलेख, हवेनसांग एवं इत्सिंग के यात्रा वृतांत। 

    • हर्षचरित का लेखक बाणभट्ट हर्षवर्द्धन का दरबारी कवि था। ऐतिहासिक विषय पर महाकाव्य लिखने का यह प्रथम सफल प्रयास था। इसके पांचवें, छठे अध्याय में हर्ष का वर्णन है। 

    • हर्ष के सोनीपत की मुहर में पूरा नाम हर्षवर्द्धन लिखा है। 

    • हवेनसांग ने हर्ष को 'फी-शे' जाति अर्थात वैश्य बताया है। हर्षचरितमें पुष्यभूति वंश की तुलना चंद्र से की गई है। 

    • पुष्यभूति वंश का संस्थापक पुष्यभूति था। इस वंश का प्रथम प्रसिद्ध शासक 'प्रभाकरवर्धन' था जो हर्षवर्द्धन का पिता था। 

    प्रभाकरवर्द्धन की उपाधि हूणहरिण केशरी तथा गुर्जर प्रजागर थी। उसने हूणों के साथ युद्ध किया था। उसकी राजधानी 'थानेश्वर' (हरियाण के करनाल के पास थानेसर नामक स्थान) थी। 

    • प्रभाकरवर्द्धन के पुत्र राज्यवर्द्धन के शासन काल में मालवा के शासक देवगुप्त एवं बंगाल के शासक शशांक ने कन्नौज के मौखरि शासक ग्रहवर्मन की हत्या कर दी और उसकी पत्नी राज्यश्री को बंदी बना लिया। राज्यवर्द्धन अपनी बहन राज्यश्री को मुक्त कराने के प्रयास में शशांक द्वारा मारा गया। राज्यवर्द्धन की मृत्यु के बाद उसका 16 वर्षीय भाई हर्षवर्द्धन मंत्रियों के परामर्श से राजगद्दी पर बैठा। 


    हर्षवर्द्धन (606-647 ई.) 


    हर्षवर्धन ने एक बौद्ध दिवाकरमित्र की सहायता से अपनी बहन राज्यश्री को बचाया तथा कन्नौज का शासनभार अपने ऊपर ले लिया। 

    • हर्ष ने कन्नौज को राजधानी बनाया और पांच राज्यों -पंजाब, कन्नौज, गौड़ (बंगाल), मिथिला तथा उड़ीसा पर आधिपत्य स्थापित किया। 

    • हर्ष ने बल्लभी नरेश ध्रुवसेन द्वितीय से अपनी पुत्री का विवाह कर दिया। 

    • लगभग 620 ई. में हर्ष का दक्षिण के शासक पुलकेशिन द्वितीय के साथ नर्मदा के तट पर युद्ध हुआ। इसके बाद हर्ष उत्तर भारत तक ही सिमट कर रह गया। 

    ह्वेनसांग के अनुसार बंगाल के शासक शशांक ने गया के बोधिवृक्ष को कटवाकर गंगा में फेंकवा दिया था। तत्कालिन साहित्यों में शशांक को 'अधम गौड़ सर्प' कहा गया है। शशांक के सिक्कों पर शिव एवं नन्दी के चित्र हैं। 

    • हर्षचरित के अनुसार नेपाल एवं कश्मीर पर भी हर्ष का प्रभाव था।

    •  द. भारतीय अभिलेखोंमेंहर्षको सकलोतरापथनाथ' कहा गया है। दानशीलता के कारण हर्ष को 'भारतीय हातिम' भी कहा जाता है। 

    • हर्ष ने दिन को भागों में बांट दिया था। एक भाग में प्रशासनिक, एक भाग में धार्मिक तथा अन्य में व्यक्तिक कार्य करता था। 

    • राजा की सहायता के लिए मंत्रिपरिषद होती थी। मंत्री को सचिव या आमात्य कहा जाता था। अधीनस्थ शासक महाजन अथवा महासामंत कहे जाते थे। 

    • संदेशवाहक 'दिर्घध्वज' तथा गुप्तचर सर्वगतः कहे जाते थे। 

    • हर्षकाल में दंडविधान कठोर था। सामाजिक अपराधों के लिए अपराधियों के नाक, कान, हाथ, पैर आदि काट लिये जाते थे। 

    • अधिकारियों को शासन पत्र जारी कर जमीन देने की परम्परा शुरू करने का श्रेय हर्ष को जाता है। 

    • भूमि कर राज्य की आय का प्रमुख साधन था जो उपज का छठा भाग था। 

    • हर्षचरित में सिंचाई के साधन के रूप में तुलायंत्र (जल पंप) का उल्लेख मिलता है। हर्ष काल के बहुत कम सिक्के मिले हैं जो व्यापार के पतनोन्मुख दशा का सूचक है। 

    • मथुरा सूती वस्त्रों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था। 

    • हर्षवर्धन ने शिलादित्य एवं प्रतापशील की उपाधि धारण की थी। उसे 'लार्ड आफ फाइभ इंडिज' कहा जाता है। 

    बाणभट्ट तथा मयूर हर्ष के दरबारी कवि थे। हर्ष ने तीन नाटकों; रत्नावली, प्रियदर्शिका तथा नागानंद की रचना की थी। हर्ष के दरबार में 643 ई. में एवं 646 ई. में . तीन चीनी दूत आये थे। 


    • हर्ष महायान बौद्धमतानुयायी था। हर्ष ने कन्नौज सभा तथा प्रयाग सभा का आयोजन कराया। प्रयाग सभा को महामोक्ष परिषद कहा जाता था। यह पांच वर्ष के अंतराल पर होती थी। 

    • हवेनसांग की अध्यक्षता में कन्नौज सभा आयोजित हुई थी। इसमें बुद्ध की स्वर्ण मूर्ति की पूजा की गई। इस सभा में ब्राह्मणों ने उपद्रव मचाया था। 

    • छठे प्रयाग सभा में हवेनसांग उपस्थित हुआ था। इसमें बुद्ध, सूर्य तथा शिव (ईश्वर) की पूजा हुई। सभा के अंत में हर्ष ने अपनी समस्त संपत्ति एवं पहने हुए कपड़े दान कर दिये तथा बहन राज्यश्री से वस्त्र मांगकर पहना। 

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