उत्तरवैदिक काल(1000-600 ई.पू.)
इस काल का इतिहास का आधार तीन वेद; यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद; ब्राह्मण ग्रंथ, अरण्यकों एवं उपनिषद हैं।
अथर्ववेद में पंजाब के अतिरिक्त महावृषों, बाल्हिकों, मुंजवन्तों और गंधारियों के प्रदेशों से लेकर अंग और मगध तक के सम्पूर्ण उत्तर भारत का उल्लेख हुआ है।
कुरु और पांचाल को शतपथ ब्राह्मण में सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि बताया गया है।
शतपथ ब्राह्मण के अनुसार विदेथ माधव वैश्वानर अग्नि को मुंह में रखकर जंगलों को जलाते हुये सदानीरा या गण्डक नदी तक पहुंचे जो आर्यों के प्रसार का सूचक है।
उत्तरवैदिक राजनीतिक संगठन
दो प्रमुख कबीले भरत व पुरु मिलकर कुरु तथा तुर्वसु व किवि मिलकर पांचाल हो गये। पंचाल राज्य अपने दार्शनिक राजाओं के लिए ख्यात था।
राजा का पद अब वंशानुगत हो गया। राजा के पद के महत्त्व में वृद्धि का उल्लेख उत्तर वैदिक साहित्य में मिलता है।
ऐतरेय ब्राह्मण में राजा को विशमत अर्थात प्रजा का भक्षक भी कहा गया है। राष्ट्र शब्द का उल्लेख मिलने लगता है।
राजा की उत्पत्ति के दैवी सिद्धान्त का भी उल्लेख साहित्य में मिलता है। राजतन्त्र का स्वरूप कबीलाई से बदलकर क्षेत्रीय हो गया।
प्राची में सम्राट, दक्षिण में भौज्य, प्रतीची में स्वराज्य उदीची में वैराज्य राजतन्त्र था।
राजा अब अधिराज, राजाधिराज, सम्राट, विराट, एकराट जैसी उपाधियां धारण करने लगे, जो साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का आभास देता है।
विभिन्न प्रकार के राजत्व की प्राप्ति के लिए यज्ञों का महत्त्व बढ़ गया। गोपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा को राजसूय, सम्राट को वाजपेय, स्वराष्ट्र को अश्वमेध, विराट को पुरुषमेध और सर्वराट को सर्वमेध यज्ञ करना चाहिए। वाजपेय यज्ञ में रथ का दौड़ होता था।
राजा को सलाह देने के लिए स्थायी सलाहकार भी होने लगे, जिन्हें रत्निन नाम से जाना जाता है। इन रत्नियों में क्षत्रिय, अथवा भार, प्रतिहारी, अक्षवाप (आय व्यय का विवरण रखने वाला), पालागल (दूत या संदेशवाहक), राजस् (राज घराने का सदस्य) आदि शामिल थे।
स्थानीय प्रशासकों के लिए 'स्थपति', शतपति- जैसे शब्द व्यहत थे। सेनानी जैसे अधिकारी की व्यवस्था स्थायी सेना का संकेत देती है।
इन अधिकारियों के अतिरिक्त अंगरक्षक, धर्माध्यक्ष, दौवारिक, परिचारक, वृन्दाध्यक्ष, अश्वाध्यक्ष आदि पदाधिकारियों के नाम भी मिलते हैं।
'उग्र' एवं 'जीवग्रह' इस काल में पुलिस गुप्तचर अधिकारी थे। न्यायपालिका का सर्वोच्च अधिकारी तो राजा होता था, परन्तु स्थानीय रूप से न्याय पंचायतें थीं। बड़े न्यायालय का नाम 'सभा' था।
आय के मुख्य साधन कर होते थे। कर संग्रह के लिए अब 'भागदुध' नामक अधिकारियों की नियुक्ति होने लगी।
आय का सोलहवाँ भाग कर के रूप में लिया जाता था। राज्य की आमदनी राजा को प्राप्त उपहारों के रूप में भी होती थी।
'ग्राम्यवादिनी' गांवों में साधारण मामलों का फैसला करती थी। ब्राह्मण की हत्या सबसे बड़ा अपराध था। न्याय के संबंध में ब्राह्मणों को विशेष अधिकार प्राप्त था। राजद्रोह भीषण अपराध माना जाता था। इसके लिए पुरोहित तक को प्राणदण्ड की सजा का प्रावधान था।
विदथ का नामोनिशान मिट गया। सभा एवं समिति रही परंतु उनका महत्व कम हो गया। उसमें स्त्रियों का प्रवेश वर्जित हो गया। समिति की अध्यक्षता करने वाले को ईशान कहा जाता था। सभा को अथर्ववेद में नरिष्ठा कहा गया है।
उत्तरवैदिक सामाजिक जीवन
जन अथवा कबीले अब अपना घुमक्कड़ जीवन छोड़कर स्थायी रूप से एक स्था पर बस गये और वह क्षेत्र उनका 'जनपद' कहा जाने लगा।
इस काल में गोत्र प्रथा प्रचलित हुयी।
आर्यों के स्थायी जीवन में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का सामाजिक विभाजन अब पहले की अपेक्षा अधिक कठोर होने लगा और इसमें एक चौथा वर्ण शूद्र भी जुड़ गया। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को द्विज कहा गया।
काठक संहिता में क्षत्रिय को ब्राह्मण से श्रेष्ठ कहा गया है।
शूद्रों को वैदिक शिक्षा का अधिकार नहीं दिया गया। छांदोग्य व वृहदारण्यक में चांडाल को भी यज्ञ का अवशेष पाने का अधिकारी माना गया है।
कर्मकाण्ड की बढ़ती हुई प्रधानता के साथ ही ब्राह्मण वर्ण का महत्त्व बढ़ गया। यज्ञों के पुरोहित के रूप में ब्राह्मण को अत्यन्त आकर्षक दक्षिणा मिलती थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश ब्राह्मणों ने आय के साधन के रूप में कर्मकाण्ड अथवा यज्ञ विधान को सीखने में अपना पूरा समय लगा दिया था।
वैश्य वर्ग को भी उत्तर वैदिक काल में खेती के अत्यधिक विस्तार का लाभ मिला।
वर्ण व्यवस्था के पहले की अपेक्षा कठोर. हो जाने के बावजूद उत्तर वैदिक काल में वर्ण परिवर्तन कुछ सीमा तक सम्भव था। विश्वामित्र जन्म से क्षत्रिय थे, किन्तु तपस्या से वे ब्राह्मण बने।
कुछ कृत्य केवल शूद्रों के लिए ही थे। राज्य के रत्निनों में भी शूद्रों के लिए स्थान था।
धर्मशास्त्रों में जातियों के उदय को वर्णों के बीच होने वाले प्रतिलोम विवाहों की उपज माना गया है। प्रतिलोम विवाह में स्त्री उच्च वर्ण की और निम्न वर्ण का होता था।
उत्तर वैदिक काल की कुछ जातियां सूत, चाण्डाल, निषाद, मागध, रथकर, अम्बष्ठ आदि हैं। सम्भवतः वर्ण व्यवस्था में इनके लिए स्थान नहीं था।
उत्तर वैदिक काल में पूर्व वैदिक काल की अपेक्षा स्त्रियों की शिक्षा में कमी आयी, लेकिन फिर भी गार्गी और मैत्रेयी जैसी कुछ विदुषी स्त्रियों के नाम मिलते हैं।
एक विवाह के साथ ही बहुविवाह की प्रथा का भी प्रचलन था। पहली पत्नी को मुख्य पत्नी माना जाता था और उसे कुछ विशेषधिकार भी प्राप्त थे।
स्त्रियों को पूर्णतः पुरुषों के अधीन कर दिया गया। उनके राजनीतिक और धार्मिक अधिकारों पर भी प्रतिबंध लग गये। एक वाद-विवाद के दौरान याज्ञवल्क्य, गार्गी को धमकाते हुए कहते हैं कि अधिक बहस नहीं करो, वरना तुम्हारा सिर तोड़ दिया जायेगा।
ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को कृपण कहा गया है।
मैत्रायणी संहिता में महिलाओं को द्यूत व मद्य के समान तीन बुराइयों में शामिल किया गया।
विवाह के आठ प्रकार
1. ब्राह्मः कन्या का पिता वेदों के ज्ञाता एवं शीलवान वर का चयन करने के बाद उसे अपने घर बुलाता था तथा उसकी पूजा करके वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कन्या उसे प्रदान करता था।
2. दैवः यज्ञ के पुरोहित के साथ कन्या का विवाह
3. आर्षः कन्या के पिता को एक जोड़ी गाय और बैल प्रदान करना
4. प्राजापत्यः इस विवाह के अर्न्तगत कन्या का पिता वर को कन्या प्रदान करते हुये यह आदेश देता था कि दोनों साथ-साथ मिलकर सामाजिक एवं धार्मिक कर्त्तव्यों का निर्वाह करें।
5. आसुरः धन लेकर कन्या का विवाह करना,
6. गान्धर्वः प्रणय विवाह या प्रेम विवाह, स्वयंवर विवाह
7. राक्षसः बलपूर्वक कन्या का अपहरण कर विवाह
8. पैशाचः बल-छल के द्वारा कन्या के शरीर पर अधिकार
2. दैवः यज्ञ के पुरोहित के साथ कन्या का विवाह
3. आर्षः कन्या के पिता को एक जोड़ी गाय और बैल प्रदान करना
4. प्राजापत्यः इस विवाह के अर्न्तगत कन्या का पिता वर को कन्या प्रदान करते हुये यह आदेश देता था कि दोनों साथ-साथ मिलकर सामाजिक एवं धार्मिक कर्त्तव्यों का निर्वाह करें।
5. आसुरः धन लेकर कन्या का विवाह करना,
6. गान्धर्वः प्रणय विवाह या प्रेम विवाह, स्वयंवर विवाह
7. राक्षसः बलपूर्वक कन्या का अपहरण कर विवाह
8. पैशाचः बल-छल के द्वारा कन्या के शरीर पर अधिकार
• अनुलोम तथा प्रतिलोमः अनुलोम में उच्च वर्ण का व्यक्ति अपने ठीक नीचे के वर्ण की कन्या के साथ विवाह करता था। प्रतिलोम विवाह के अन्तर्गत उच्चवर्ण की कन्या का विवाह निम्नवर्ण के व्यक्ति के साथ होता था।. पंचालों के राजा प्रवाहण जैवलि ने समिति में पांच प्रश्नों का जवाब नहीं दे पाया।
• छांदोग्य उपनिषद के अनुसार 24 वर्ष की आयु में श्वेतकेतु ने धर्म व दर्शन का ज्ञान हो जाने का दावा किया।
• ऋग्वेद में में ऋज्राश्व की कथा तथा ऐतरेय ब्राह्मण में शुन:शेप की कथा का उल्लेख है जिससे पता चलता है कि पिता पुत्र को दंडित करता था।
• छांदोग्य उपनिषद में कैकय के राजा अश्वपति का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में सभा एवं समिति को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है।
• यम एवं नचिकेता की कहानी कठोपनिषद में है।
• पुनर्जन्म का सिधांत शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। उत्तर वैदिक काल में ब्रह्म एवं क्षत्र तथा मित्र एवं वरुण के बीच संघर्ष का उल्लेख मिलता है।
• ऐतरेय में सर्वप्रथम चार वर्णों के कर्तव्य का उल्लेख मिलता है।
• छांदोग्य उपनिषद में इतिहास-पुराण को पंचम वेद कहा गया है।
• लोपामुद्रा अगस्त्य की पत्नी थी।
• आरुणि उद्यालक व श्वेतकेतु के बीच संवाद का वर्णन छांदोग्य उपनिषद में मिलता है।
उत्तर वैदिक ग्रंथों में केवल तीन आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ व वानप्रस्थ का उल्लेख मिलता है। सर्वप्रथम जाबालोपनिषद में चारों आश्रम का उल्लेख है। मानव जीवन को सौ वर्षों का मानकर उसे चार बराबर भागों में बांटा गया, जिन्हें आश्रम कहा गया। ये चार आश्रम हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
आश्रम व्यवस्था की स्थापना के पीछे दो मूल उद्देश्य थे। प्रथमतः मनुष्य इस व्यवस्था द्वारा चार प्रकार के ऋणों (देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण, एवं मानवजाति के प्रति ऋण) से उऋण हो सके। द्वितीय, इस व्यवस्था द्वारा मानव जीवन के चार महान पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सके।
आर्य अब पहले का घुमन्तू जीवन त्याग कर स्थायी रूप में ग्रामीण बस्तियों में निवास करने लगे। जीवन में स्थायित्व आने के कारण आर्य पशुचारण की अपेक्षा कृषि पर अत्यधिक ध्यान देने लगे।
• छांदोग्य उपनिषद के अनुसार 24 वर्ष की आयु में श्वेतकेतु ने धर्म व दर्शन का ज्ञान हो जाने का दावा किया।
• ऋग्वेद में में ऋज्राश्व की कथा तथा ऐतरेय ब्राह्मण में शुन:शेप की कथा का उल्लेख है जिससे पता चलता है कि पिता पुत्र को दंडित करता था।
• छांदोग्य उपनिषद में कैकय के राजा अश्वपति का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में सभा एवं समिति को प्रजापति की दो पुत्रियां कहा गया है।
• यम एवं नचिकेता की कहानी कठोपनिषद में है।
• पुनर्जन्म का सिधांत शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। उत्तर वैदिक काल में ब्रह्म एवं क्षत्र तथा मित्र एवं वरुण के बीच संघर्ष का उल्लेख मिलता है।
• ऐतरेय में सर्वप्रथम चार वर्णों के कर्तव्य का उल्लेख मिलता है।
• छांदोग्य उपनिषद में इतिहास-पुराण को पंचम वेद कहा गया है।
• लोपामुद्रा अगस्त्य की पत्नी थी।
• आरुणि उद्यालक व श्वेतकेतु के बीच संवाद का वर्णन छांदोग्य उपनिषद में मिलता है।
उत्तर वैदिक ग्रंथों में केवल तीन आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ व वानप्रस्थ का उल्लेख मिलता है। सर्वप्रथम जाबालोपनिषद में चारों आश्रम का उल्लेख है। मानव जीवन को सौ वर्षों का मानकर उसे चार बराबर भागों में बांटा गया, जिन्हें आश्रम कहा गया। ये चार आश्रम हैं- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास।
आश्रम व्यवस्था की स्थापना के पीछे दो मूल उद्देश्य थे। प्रथमतः मनुष्य इस व्यवस्था द्वारा चार प्रकार के ऋणों (देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण, एवं मानवजाति के प्रति ऋण) से उऋण हो सके। द्वितीय, इस व्यवस्था द्वारा मानव जीवन के चार महान पुरुषार्थों-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सके।
उत्तरवैदिक आर्थिक जीवन
आर्य अब पहले का घुमन्तू जीवन त्याग कर स्थायी रूप में ग्रामीण बस्तियों में निवास करने लगे। जीवन में स्थायित्व आने के कारण आर्य पशुचारण की अपेक्षा कृषि पर अत्यधिक ध्यान देने लगे।
लौह तकनीक के ज्ञान ने कृषि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इस काल के साहित्य में 'धातु की चोंच वाले फाल' (प्रवीरवन्त) का उल्लेख मिलता है जो सम्भवतः लोहे का बना होता था। लगभग 900 ई.पू. के आस पास से पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, बंगाल इत्यादि अनेक जगहों से लोहे के प्रचलन के पुरातात्विक प्रमाण मिलते हैं, परन्तु कृषि में प्रयुक्त होने वाले उपकरण नहीं मिले हैं।
अतरंजीखेड़ा (एटा, उ.प्र.) से कुछ उपकरण प्राप्त हुए हैं, जिनका उपयोग कृषि में किया जाता था। इस स्थल से (एटा) से लोहे का बना फाल मिला है।
तैत्तरीय उपनिषद में अन्न को ब्रह्म तथा यजुर्वेद में हल को सीर कहा गया है।
अथर्ववेद के अनुसार सर्वप्रथम पृथवैन्य ने हल व कृषि को जन्म दिया।
काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हल खींचे जाने का उल्लेख मिलता है।
शतपथ ब्राह्मण में कृषि कार्य में प्रयुक्त किये जाने वाले तरीकों, यथा- बुआई, जुताई, कटाई, ओसाई आदि का उल्लेख मिलता है।
तैत्तिरीय संहिता के अनुसार शीत काल में जौ तथा वर्षा ऋतु में धान बोया जाता था। चावल के लिए व्रीही शब्द का प्रयोग हुआ है।
इस समय मिट्टी के एक विशेष प्रकार के बर्तन बनाये जाते थे, जिन्हें चित्रित धूसर मृदमाण्ड कहा जाता है। साहित्यिक स्रोतों में कुलालों (कुम्भकारों) और कुलाल चक्रों (चाक) को उल्लेख मिलता है।
उत्तर वैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन तो हो चुका था, परन्तु सामान्य लेन-देन में वस्तु विनिमय प्रणाली का प्रचलन था। 'निष्क' जो ऋग्वैदिक काल में आभूषण था, अब मुद्रा माना जाने लगा था। अथर्ववेद में सौ सुवर्ण 'निष्क' दान में देने का उल्लेख यह प्रमाणित करता है कि यह निश्चित मापतौल का स्वर्ण सिक्का था।
इस काल में प्रयुक्त होने वाले 'निष्क, शतमान, पाद व कृष्णल' नामक शब्द माप की विभिन्न इकाइयां थीं। माप की मूल इकाई कृष्णल था। रक्तिका व गुंजा भी तौल की ही इकाई थी।
वैदिक काल में जिन धातुओं का प्रथम प्रयोग हुआ उनमें तांबा पहला था।
शतपथ ब्राह्मण में सूदखोर को कुसीदिन कहा गया है।
उत्तरवैदिक धार्मिक जीवन एवं दर्शन
कई ऋग्वैदिक देवताओं का महत्त्व घट गया तथा उनके स्थान पर नवीन देवताओं की प्रतिष्ठा हुई।
ऋग्वैदिक काल के इन्द्र, वरुण आदि देवताओं का स्थान प्रजापति, विष्णु एवं रुद्र (शिव) ने ले लिया। देवताओं की संख्या में भी वृद्धि हुई और उनमें से अनेक दिग्पाल, गंधर्व, यज्ञ आदि के रूप में (देवताओं के सहायक) सामने आये।
पितृसत्तात्मक तत्वों के सबल होने से उषा एवं अदिति जैसी देवियों का महत्त्व भी कम हो गया। उनकी जगह अब विभिन्न यक्षिणियों एवं अप्सराओं का अविर्भाव हुआ।
प्रजापति द्वारा वराह रूप में पृथ्वी धारण करने तथा बनने की कल्पना प्रचालित हुई जिसने आगे अवतारवाद को बढ़ावा दिया।
रुद्र (पशुओं का देवता) शिव या पशुपति कहलाने लगा। विष्णु पालनकर्ता के रूप में प्रतिष्ठित हुए। इस प्रकार उत्तर वैदिक काल में त्रिमूर्ति की भावना का विकास हुआ। ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही प्रमुख देवता बन गये।
'पूषन' जो पहले मवेशियों का देवता था, अब मुख्यतया शूद्रों का देवता बन गया।
यज्ञों का संचालन पुरोहित करता था। यज्ञ के विषय में कल्पना की गयी है कि विश्व की स्थिति के लिए यह ( यज्ञ) नितान्त आवश्यक है। एक यज्ञ के सम्पादन में 16-17 पुरोहितों की आवश्यकता होती थी।
यज्ञों का महत्व मनुष्य के कर्त्तव्यों के साथ जोड़ दिया गया। देवता, ऋषि, पितृ, जन्त आदि सबके लिए यज्ञ किया जाता था।
राजसूय यज्ञ (अभिषेक) करने वाले प्रधान पुरोहित को 2,40,000 गायें दान में दी जाती थीं।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि "यदि बलि नहीं दी जायेगी तो सूर्योदय नहीं होगा।
" यज्ञों के साथ-साथ विभिन्न संस्कारों के पालन पर भी बल दिया गया। ये संस्कार गर्भाधान से मृत्युपर्यन्त होते रहते थे।
उत्तर वैदिक काल में एक ओर यज्ञ एवं कर्मकांडों की प्रधानता बढ़ती जा रही थी, वहीं एक नयी दर्शनिक विचारधारा का भी उदय हुआ।
उपनिषदों ने ब्राह्मणों के कर्मकाण्ड के खिलाफ विरोध को स्वर दिया और यहीं से वैदिक धर्म और दर्शन में एक नया मोड़ आया।
मुण्डक उपनिषद ने खुले हुए शब्दों में कर्मकाण्ड की निंदा की और उन्हें टूटी हुई नावें बताया। उसने निंदा करते हुए आगे कहा कि जो लोग 10 प्रकार के कर्मकाण्डों को श्रेयस्कर समझते हैं और करते हैं, वे बुढ़ापे और मृत्यु को बार-बार प्राप्त होते हैं।
षड्दर्शन का भी बीजारोपण इसी काल में हुआ।
पांच महायज्ञ
1. ब्रम्ह यज्ञ : वेद पाठ द्वारा संसार की आत्मा ब्रह्म की पूजा।
2. पितृ यज्ञ : तर्पण तथा सामायिक श्राद्धों द्वारा पितरों की पूजा।
3. देव यज्ञ : पवित्र अग्नि में घी की आहुति द्वारा देवताओं की पूजा।
4. भूत यज्ञ : पशुओं, पक्षियों तथा भूत-प्रेतों के लिए द्वार पर अन्न तथा भोजन डालकर समस्त प्राणिमात्र की पूजा।
5. पुरुष यज्ञ : अतिथि सत्कार द्वारा मनुष्यों की पूजा।
16 संस्कार
1. गर्भाधान संस्कारः संतान उत्पन्न करने हेतु पुरुष एवं स्त्री द्वारा की जाने वाली क्रिया। यह संस्कार प्रथम गर्भ धारण के समयं की जाती थी
2. पुंसवन संस्कारः स्त्री द्वारा गर्भधारण करने के तीसरे, चौथे तथा आठवें महीने में किया जाता था। इसमें स्त्री पुरुष द्वारा संकल्प लिया जाता था कि वे गर्भ को नुकसान पहुंचाने वाला कोई कार्य नहीं करेंगे
3.सीमांतोन्नयन संस्कारः गर्भवती स्त्री के गर्भ की रक्षा हेतु किया जाने वाला संस्कार। इस संस्कार के द्वारा स्त्री के गर्भधारण की सूचना दी जाती थी
4. जातकर्म संस्कारः बच्चे के जन्म के पश्चात पिता अपने शिशु को घृत या मधु चटाता था। बच्चे के दीर्घायु के लिए प्रार्थना की जाती थी
2. पुंसवन संस्कारः स्त्री द्वारा गर्भधारण करने के तीसरे, चौथे तथा आठवें महीने में किया जाता था। इसमें स्त्री पुरुष द्वारा संकल्प लिया जाता था कि वे गर्भ को नुकसान पहुंचाने वाला कोई कार्य नहीं करेंगे
3.सीमांतोन्नयन संस्कारः गर्भवती स्त्री के गर्भ की रक्षा हेतु किया जाने वाला संस्कार। इस संस्कार के द्वारा स्त्री के गर्भधारण की सूचना दी जाती थी
4. जातकर्म संस्कारः बच्चे के जन्म के पश्चात पिता अपने शिशु को घृत या मधु चटाता था। बच्चे के दीर्घायु के लिए प्रार्थना की जाती थी
5.नामकरण संस्कारः शिशु का नाम रखा जाता था
6.निष्क्रमण संस्कारः जन्म के 12वें दिन से लेकर चौथे महीने के बीच किसी दिन बच्चे को घर से बाहर निकलने के अवसर पर किया जाता था
7. अन्नप्राशन संस्कारः इसमें शिशु को छठे मास में अन्न खिलाया जाता था
8. चूडाकर्म संस्कारः शिशु के तीसरे से आठवें वर्ष के बीच कभी भी मुंडन कराया जाता था
9.कर्णवेध संस्कारः रोगों से बचने हेतु तथा आभूषण धारण करने के उद्देश्य से किया जाता था
10. विद्यारम्भ संस्कारः पांचवे वर्ष में बच्चों को अक्षर ज्ञान कराया जाता था
11. उपनयन संस्कारः इस संस्कार के पश्चात बालक द्विज हो जाता था। इस संस्कार के बाद बच्चे को संयमी जीवन व्यतीत करना पड़ता था। बच्चा इसके बाद शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता था
12. वेदारम्भ संस्कारः वेद अध्ययन करने के लिए किया जाने वाला संस्कार
13. केशान्त संस्कारः 16 वर्ष का हो जाने पर प्रथम बार दाड़ी मुंछ को मुंडा जाता था
14. समावर्तन संस्कारः विद्याध्ययन समाप्त कर घर लौटने पर किया जाता था। यह ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति का सूचक था
15. विवाह संस्कारः वर-वधू के परिणय-सूत्र में बंधने के समय किया जाने वाला संस्कार था
16. अंत्येष्टि संस्कारः निधन के बाद होने वाला संस्कार
6.निष्क्रमण संस्कारः जन्म के 12वें दिन से लेकर चौथे महीने के बीच किसी दिन बच्चे को घर से बाहर निकलने के अवसर पर किया जाता था
7. अन्नप्राशन संस्कारः इसमें शिशु को छठे मास में अन्न खिलाया जाता था
8. चूडाकर्म संस्कारः शिशु के तीसरे से आठवें वर्ष के बीच कभी भी मुंडन कराया जाता था
9.कर्णवेध संस्कारः रोगों से बचने हेतु तथा आभूषण धारण करने के उद्देश्य से किया जाता था
10. विद्यारम्भ संस्कारः पांचवे वर्ष में बच्चों को अक्षर ज्ञान कराया जाता था
11. उपनयन संस्कारः इस संस्कार के पश्चात बालक द्विज हो जाता था। इस संस्कार के बाद बच्चे को संयमी जीवन व्यतीत करना पड़ता था। बच्चा इसके बाद शिक्षा ग्रहण करने योग्य हो जाता था
12. वेदारम्भ संस्कारः वेद अध्ययन करने के लिए किया जाने वाला संस्कार
13. केशान्त संस्कारः 16 वर्ष का हो जाने पर प्रथम बार दाड़ी मुंछ को मुंडा जाता था
14. समावर्तन संस्कारः विद्याध्ययन समाप्त कर घर लौटने पर किया जाता था। यह ब्रह्मचर्य आश्रम की समाप्ति का सूचक था
15. विवाह संस्कारः वर-वधू के परिणय-सूत्र में बंधने के समय किया जाने वाला संस्कार था
16. अंत्येष्टि संस्कारः निधन के बाद होने वाला संस्कार
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