वैदिक काल
ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू)
सिंधु घाटी सभ्यता का अंत लगभग 1750 ई. पू. के आसपास हुआ और 1500 ई. पू. से पूर्व वैदिक काल की शुरुआत मानी जाती है। वैदिक काल का विस्तार लगभय 1500 ई.पू. से लगभग 500 ई.पू. तक मान सकते हैं। वैदिक सभ्यता के निर्माता अपने को आर्य तथा अपने शत्रुओं को दास अथवा दस्यु कहते थे। दास अथवा दस्यु के काले रंग के लिंगपूजक और चिपटी नाक वाले थे। उनकी बोली समझ में नहीं आती थी। वे यज्ञ नहीं करते थे, उनके पास पुर थे, उनका सरदार शम्बर पत्थर की 100 पुरों का स्वामी था। आर्य भाषा का सूचक है।
वैदिक साहित्य
वैदिक साहित्य में चारों वेद, ब्राह्मण ग्रंथ, आरणयक एवं उपनिषद् शामिल किए जाते हैं। चारों वेद में ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद, तथा अथर्ववेद शामिल होते हैं। इनमें ऋग्वेद की रचना प्रारंभिक वैदिक काल (1500-1000 ई. पूर्व) में हुई थी, बाकी तीनों वेदों का रचनाकाल उत्तर वैदिक काल (1000-600 ईसापूर्व) है।
ऋग्वेद का विभाजन क्रमशः 'मण्डल', 'सूक्त' एवं 'ऋचाओं' में है। इसमें कुल दस मंडल, 1028 सूक्त एवं 10,580 ऋचाएं हैं।
इसके दूसरे तथा सातवें को सबसे पहले की रचना माना गया है। दूसरे मंडल से सातवें मंडल तक' को वंश मंडल भी कहा गया है। ऋग्वेद के आठवें मंडल में मिली हस्तलिखित प्रतियों के परिशिष्ट को 'खिल' कहा गया है।
ऋग्वेद
ऋग्वेद का विभाजन क्रमशः 'मण्डल', 'सूक्त' एवं 'ऋचाओं' में है। इसमें कुल दस मंडल, 1028 सूक्त एवं 10,580 ऋचाएं हैं।
इसके दूसरे तथा सातवें को सबसे पहले की रचना माना गया है। दूसरे मंडल से सातवें मंडल तक' को वंश मंडल भी कहा गया है। ऋग्वेद के आठवें मंडल में मिली हस्तलिखित प्रतियों के परिशिष्ट को 'खिल' कहा गया है।
इसकी ऋचाओं का गान होतृ करते थे।
पहले एवं दसवें मंडल को क्षेपक माना गया है। दसवें मंडल में ही 'पुरुष सूक्त' है, जिसमें चारों वर्गों की उत्पत्ति का साक्ष्य है। नौवें मंडल में सोम से संबंधित सूक्त हैं। इस वेद की प्रचलित संहिता को 'शाकल' कहा गया है।
पहले एवं दसवें मंडल को क्षेपक माना गया है। दसवें मंडल में ही 'पुरुष सूक्त' है, जिसमें चारों वर्गों की उत्पत्ति का साक्ष्य है। नौवें मंडल में सोम से संबंधित सूक्त हैं। इस वेद की प्रचलित संहिता को 'शाकल' कहा गया है।
सामवेदः
इसके अधिकांश श्लोक ऋग्वेद से लिया गया है। इसमें कुल 1549 ऋचायें हैं जिनमें 75 ही नए हैं। इनको उपासना एवं धार्मिक आनुष्ठानों के अवसरों पर स्पष्ट तथा लयबद्ध गाने के लिए संकलित किया गया।
इसके गायन उद्गातृ करते थे।
सामवेद की महत्वपूर्ण शाखाएं कौथुमीय, जैमिनीय एवं रामायणीय थी।
यजुर्वेद
इसमें यज्ञ संबंधी अनुष्ठानों का वर्णन है। इसका संकलन गद्य और पद्य दोनों में किया
गया है।
यज्ञ संपन्न कराने वाले पुराहित अध्वर्यु इसका सस्वर पाठ करते थे।
यजुर्वेद पांच शाखाओं काठक, कपिष्ठल, मैत्रायणी, तैत्तरीय तथा वाजसनेयी में विभक्त है। इनमें प्रथम चार कृष्ण यजुर्वेद के अंतर्गत एवं वाजसनेयी शुक्ल यजुर्वेद के अंतर्गत आती है।
अथर्ववेद
इसकी गणना 'त्रयी' में नहीं होती। इस संहिता का विभाजन 'मण्डलों' में न होकर काण्डों' में है। इसमें कुल 20 काण्ड एवं 711 सूक्त हैं। इस वेद के दो और नाम। प्रचलित हैं 'ब्रह्मवेद' और अथर्वागिरसवेद।
इस वेद के अधिकांश सूक्त जादू-टोने पर आधारित हैं। इस वेद की दो शाखाएं पिप्पलाद एवं शौनक है।
उपवेद
आयुर्वेदः ऋग्वेद,
गंधर्ववेदः सामवेद
धुनर्वेदः यजुर्वेद
शिल्पवेदः अथर्ववेद
ब्राह्मण ग्रंथः
वेदों के बाद ब्राह्मण ग्रंथों की रचना हुई। ये वैदिक संहिताओं पर टीका- टिप्पणियां हैं यह आनुष्ठानों के सामाजिक एवं धार्मिक पक्षों को भी उजागर करते हैं।
प्रत्येक वेद के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं जैसे-ऋग्वेद के ऐतरेय एवं कौषीतकी, यजुर्वेद के शतपथ, सामवेद के पंचविश या तांड्य तथा अथर्ववेद के गोपथ ब्राह्मण।
आरण्यक ग्रंथः
ब्राह्मण ग्रंथों के उपसंहार-खंडों को आरण्यक कहते हैं। आरण्यकों में गुप्त और जोखिम भरे एन्द्रिय जालिक क्रियाकलापों का उल्लेख रहने के कारण, उनकी शिक्षा की व्यवस्था अरण्यों अथवा जंगलों में की जाती थी। इनकी कुल संख्या सात है- ऐतरेय, शांखायन, तैत्तिरीय, मैत्रायणी, माध्यन्दिन, तल्वकार तथा जैमिनीय आरण्यक।
उपनिषदः
उपनिषद का शब्दिक अर्थ है- समीप बैठना उपनिषदों ने अद्वैतवाद का सिद्धात' प्रतिपादित किया। उपनिषदें आगे भारत के ईश्वरवादी एवं अनीश्वरवादी दोनों प्रकार के दर्शनों का आधार बनीं।
उपनिषद् वैदिक साहित्य के अंतिम भाग हैं अतः इन्हें वेदांत भी कहा जाता है। उपनिषदों की संख्या 108 है, जिसमें ईश, केन, कठ, मांडूक्य, मुण्डक, प्रश्न आदि 12 उपनिषद प्रमुख हैं।
भारत का प्रसिद्ध राष्ट्रीय आर्दश वाक्य सत्यमेव जयते मुण्डकोपनिषद से ही लिया गया है।
छह वेदांग
वैदिक ग्रंथों को समझने तथा वैदिक कर्मकांडों के प्रतिपादन में सहायतार्थ 'वेदांग' की रचना की गई। इन्हें वैदिक साहित्य का भागनहीं माना जाता है। इनका सर्वप्रथम उल्लेख मुंडक उपनिषद में मिलता है। इनकी संख्या 6 है:
1. शिक्षा (phonetics): उच्चारण विधि, प्राचीनतम साहित्य प्रतिशाख्य सूत्र हैं।
2. कल्प सूत्र (ritual): कर्मकांड, सूत्र ग्रंथों को ही कल्प कहा जाता है। कल्प सूत्र चार प्रकार के हैं; सौत्र (यज्ञ व बलि), स्मर्त (स्मृति या परंपरा), ग्रह्य (घरेलू नियम) व धर्म (सामाजिक कर्तव्य)।
3. व्याकरण (grammar): शब्दों की मीमांसा करने वाला शास्त्र व्याकरण कहा गया। व्याकरण की सर्वप्रमुख रचना पाणिनि कृत 'अष्टाध्यायी' (5वीं शती ई. पू.) है। ईसा पूर्व चौथी शताब्दी में कात्यायन ने संस्कृत में प्रयुक्त होने वाले नये शब्दों की व्याख्या के लिए 'वार्तिक' लिखे। ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में पतंजलि ने पाणिनीय सूत्रों पर 'महाभाष्य' लिखा।
4. निरुक्त (etymology): भाषा विज्ञान, क्लिष्ट वैदिक शब्दों के संकलन 'निघण्टु' की व्याख्या हेतु यास्क ने 'निरुक्त' की रचना की थी, जिसे भाषा शास्त्र का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।
5. छन्द (meter): वैदिक मंत्र प्राय: छंदबद्ध हैं। छंदों के नाम संहिताओं व ब्राह्मण ग्रंथों में मिलते हैं। छंदशास्त्र पर पिंगलमुनि का ग्रंथ 'छन्द सूत्र' उपलब्ध है।
6. ज्योतिष (JYOTISA): शुभ मुहूर्त में याज्ञिक अनुष्ठान करने के लिए ग्रहों तथा नक्षत्रों का अध्ययन करके सही समय ज्ञात करने की विधि से वेदांग ज्योतिष की उत्पत्ति हुई। ज्योतिष की सर्वप्रचीन रचना मगधमुनि कृत 'वेदांग ज्योतिष' है। इसमें कुल 44 श्लोक हैं। वेदांग ज्योतिष के ऋग्वेद व यजुर्वेद से सम्बन्धित ग्रंथ हैं- आचार्य ज्योतिष एवं याजुष ज्योतिष।
आर्यों का मूल निवास
डॉ. अविनाशचन्द्र दास ने सप्तसैंधव प्रदेश 'को आर्यों का आदि देश माना है।
बाल गंगाधर तिलक ने अपनी पुस्तक 'दि आर्कटिक होम ऑफ द आर्यन्स' में आर्यों का मूल निवास स्थान आर्कटिक प्रदेश या उत्तरी ध्रुव माना है।
फिलिप्पो सैसेटी नामक एक व्यापारी ने सबसे पहले यह बतलाया कि संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में एक विशेष समानता पायी जाती है। उस मत की पुष्टि सर विलियम जोन्स ने 1783 ई. में एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल में अपने एक लेख में की। सेसेटी और विलियम जॉस ने संस्कृत और यूरोपीय भाषाओं में साम्यता के आधार पर यूरोप को ही आर्यों का मूल स्थान माना है।
जर्मन विद्वान एफ. मैक्समूलर ने ऋग्वेद और जेंद अवेस्ता में साम्यता के आधार पर आयाँ को मध्य एशिया का मल निवासी बताया है।
एडवर्ड पामीर के पठार को आर्यों का मूल स्थान मानते हैं।
भारत में आने के पूर्व सर्वप्रथम आर्य ईरान पहुंचे। वहां हिन्द-ईरानी लोगों ने काफी समय तक निवास किया।
ऋग्वेद से हमें आर्यों के विषय में जानकारी मिलती है। कवियों अथवा ऋषियों के विभिन्न परिवारों द्वारा अग्नि, मित्र, वरुण आदि देवताओं की स्तुति में रची गयी प्रार्थनाओं का ऋग्वेद में संकलन है। ऋग्वेद में 10 मण्डल हैं, जिनमें से दो से सात तक के मण्डल सबसे प्राचीन हैं। पहला और दसवां मण्डल सम्भवतः बाद में (प्रक्षिप्त) जोडा गया।
गृत्समद, विश्वामत्र, वामदेव, अत्रि, भारद्वाज व वशिष्ट कमश: दूसरे, तीसरे, चौथे, पांचवें, छठे व सातवें मंडल के रचियता थे। आठवां मंडल कण्वों व अंगीरस को समर्पित है।
ईरानी भाषा के सबसे प्राचीन ग्रंथ 'अवेस्ता' और ऋग्वेद में अनेक समानताएं हैं। दोनों में न केवल अनेक देवताओं के बल्कि सामाजिक वर्गों के नाम भी समान हैं।
इराक से प्राप्त 1600 ई.पू. के कस्सी अभिलेखों में और ई.पू. चौदहवीं सदी के मितन्नी अभिलेखों में जिन आर्य नामों का उल्लेख मिलता है, उनसे सूचित होता है कि आर्यों की एक ईरानी शाखा पश्चिम की ओर चली गयी।
एशिया माईनर (तुर्की) के बोगोजकोई अभिलेख में इंद्र, मित्र, वरुण व नासत्य का उल्लेख है। इन्हीं देवताओं की अराधना आर्य लोग करते थे।
आरंभिक आर्यों का निवास पूर्वी अफगानिस्तान, पंजाब और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती भू-भाग में था।
ऋग्वेद में अफगानिस्तान की कुभा (काबुल) जैसी कुछ नदियों के और सिंधु तथा इसकी पांच सहायक नदियों का उल्लेख मिलता है।
सिंधु ऋग्वैदिक आर्यों की सबसे प्रमुख नदी थी और इसका उन्होंने बार-बार उल्लेख किया है। दूसरी नदी जिसका उन्होंने कई बार उल्लेख किया है 'सरस्वती' थी, जो अब राजस्थान के रेगिस्तान में लुप्त हो गयी है। सरस्वती नदी को नदीतमा कहा गया है।
झेलम (वितस्ता), चिनाब अस्किनी), रावी (परुष्णी) तथा सतलज (शुतुद्री) अन्य नदियां थीं।
ऋग्वेद में गंगा नदी का एक बार तथा यमुना का 3 बार उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में नदियों की संख्या लगभग 25 बतायी गई है।
ऋग्वेद में प्रयुक्त शब्द
1. राज्य 1 बार
2. विश 170 बार
3. जन 275 बार
4.गंगा 1 बार
5. शूद्र 1 बार
6. समिति 9 बार
7. सभा 8 बार
8. यमुना 3 बार
9. कृषि 24 बार
10. विदथ 22 बार
भारत के जिस प्रदेश में आर्य लोग सर्वप्रथम आबाद हुए उसे 'सप्तसिंधु' प्रदेश कहा गया है।
नदियों के नये नाम
प्राचीन नाम नया नाम
कुभा काबुल
सुवास्तु स्वात
गोमती गोमल
सिन्धु सिंध
सुषोमा सोहन
वितस्ता झेलम
असिक्नी चिनाब
मरुद्द्धा मरुवर्दन
परुष्णी रावी
विपाशा व्यास
शतुद्रि सतलज
सरस्वती/दृषद्वती घग्घर/रक्षी/चितंग
सदानीरा गंडक
ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि दिवोदास, जो भरत कुल का था शंबर को हराया था, के नाम के साथ 'दास' शब्द जुड़ा है।
ऋग्वेद के 'दस्यु' सम्भवतः इस देश के मूल निवासी थे और इन्हें हराने वाला त्रसदस्यु एक आर्य मुखिया था।
दशराज्ञ युद्ध' भरत वर्ग का राजा सुदास और दस राजाओं (पांच आर्य व पांच अनार्य) के बीच पुरुष्णी (रावी) नदी के तट पर हुआ। सुदास की ओर से वशिष्ठ व दस राजाओं की ओर से विश्वामित्र पुरोहित थे। सुदाश विजयी हुआ।
भरत नाम का उल्लेख पहली बार ऋग्वेद में आया है और इसी के आधार पर हमारे देश का नाम भारत वर्ष पड़ा।
आर्य समाज पितृसत्तात्मक था, परन्तु नारी को मातृरूप में पर्याप्त सम्मान प्राप्त था। वह अपने पति के साथ अनुष्ठानों में भाग लेती थी। परिवार की संपदा का मापदंड परिवार की वृहदता थी। संयुक्त परिवार की व्यवस्था थी जिसमें सभी संबंधी एक साथ रहते थे। नप्त शब्द का प्रयोग भतीजे, प्रपौत्र, चचेरे भाई-बहिन इत्यादि के लिए किया गया है। चावल और जौ दो मुख्य खाद्य फसल थे।
ऋग्वेद के नवें मण्डल तथा छहों अन्य सूक्तों में सोमरस की प्रशंसा की गयी है। सोमवल्ली मूजवंत पर्वत पर अथवा कीकटों के देश में उत्पन्न होती थी।
आर्य प्रमुखतः तीन प्रकार के वस्त्र धारण करते थे: (1) वास (2)अधिवास तथा (3)नीवी। शरीर के नीचे के भाग पर वास पहना जाता था, शरीर के ऊपरी भाग पर अधिवास पहना जाता था एवं नीवी को वास के नीचे पहना जाता था।
ऋग्वेद में 'उष्णीष' अर्थात् सर पर धारण की जाने वाली पगड़ी का भी उल्लेख है।
नाई को 'नप्ता' कहा जाता था।
आमोद-प्रमोद के लिए विभिन्न उत्सवों तथा 'समनों का आयोजन किया जाता था।
पर्दे की प्रथा नहीं थी। शिक्षा के द्वार स्त्रियों के लिए भी खुले थे। लोपामुद्रा, विश्ववरा, अपाला, सिक्ता तथा घोषा ने तो वेद मन्त्रों की रचना की थी और ऋषि पद को प्राप्त कर लिया था।
विष्पला नामक स्त्री लडाई में गयी थी। स्त्रियों को यज्ञ करने का भी अधिकार था।
विवाह के मामलों में स्त्रियों को बड़ी स्वतंत्रता थी। वे अपनी रुचि के अनुसार विवाह करती थीं। ऋग्वेद में कहीं भी बाल-विवाह का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उल्लेख नहीं मिलता। एक स्थान पर ऋग्वेद में उल्लेखित है कि घोषा नामक स्त्री धर्म रोग के कारण प्रौढ़ावस्था तक अविवाहिता रही थी।
विधवा विवाह तथा नियोग प्रथा का प्रचलन था। नियोग प्रथा के तहत संतान नहीं होने से देवर के साथ शारीरिक संबंध बनाये जाते थे।
ऋग्वेद में चिकित्सक के लिए भीषज शब्द का प्रयोग होता था।
चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का उल्लेख पुरुषक्त में मिलता है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में पहली बार शूद्र का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में 'वर्ण' शब्द का प्रयोग रंग के अर्थ में हुआ है।
व्यावसायिक स्वतन्त्रता का सबसे अच्छा उदाहरण ऋग्वेद का वह मंत्र प्रस्तुत करता है, जिसमें एक ऋषि कहता है कि 'मैं कवि हूं, मेरी माता आटा पीसती है और पिता वैद्य है।
ऋग्वेद में रथकार, कुम्भकार चर्मकार और बुनकर जैसे कुछ व्यवसायिक समुदायों के नाम मिलते हैं, लेकिन वे उस काल में अलग-अलग जातियों के द्योतक नहीं थे।
ऋग्वेद में आर्यों के पांच कबीले पंचजन्य कहे जाते थे। इनमें शामिल थे; अनु, द्रुयु, पुरु, तुर्वस व यदु।
कुल या परिवारः कुल या परिवार सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ राजनैतिक व्यवस्था की इकाई था। परिवार के प्रमुख को 'कुलप' या 'गृहपति' कहा जाता था।
ग्रामः कई गृह या कुल या परिवार के समूहों को मिलाकर ग्राम बनता था। इसका प्रधान ग्रामणी था।
विशः ग्राम के ऊपर 'विश' थे। विश का प्रधान 'विशपति' कहलाता था।
जनः कई विशों के समूह को जन कहा जाता था। ऋग्वेद में जन का प्रयोग 275 बार हुआ है।
राष्ट्रः सम्पूर्ण राज्य के लिए 'राष्ट्र' शब्द का प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में 'राष्ट्र' के पर्यायवाची रूप में 'गण' शब्द का भी उल्लेख मिलता है।
राजा को 'जन का रक्षक' (गोप्ता जनस्य) तथा दुर्गों का भेदन करने वाला (पुराभेता) कहा गया है।
राजा का प्रमुख कर्त्तव्य प्रजा की रक्षा करना था। रक्षा के बदले प्रजा उसे उपहारादि देती थी। ऋग्वेद में 'बलि' शब्द का उल्लेख कई स्थानों पर मिलता है। 'बलि' मुख्यतः अन्न के रूप में स्वेच्छा से दिया जाता था। ऋग्वेद में राजा के लिए 'विशमत्ता समजनि' पद आया है जिसका अर्थ है उत्पादकों का भक्षण करने वाला।
युद्ध के लिए राजा के पास सेना होती थी। शर्ध, व्रात तथा गण सेना की इकाइयां थीं।
'सभा', 'समिति' और 'विदथ' नामक संस्थाएं राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं। 'सभा' कुलीन अथवा वृद्ध मनुष्यों की संस्था थी जिसमें उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति ही भाग ले सकते थे। इसके विपरीत समिति सर्वसाधारण की सभा होती थी, जिसमें जनों के सभी व्यक्ति अथवा परिवारों के प्रमुख भाग ले सकते थे।
अथर्ववेद में सभा और समिति को 'प्रजापति की दो पुत्रियां' कहा गया है। विदथ में युद्ध की लूट का वितरण किया जाता था। युद्ध मुख्य रूप से पशुओं के लिए होता था।
ऋग्वेद में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी, इन तीनों अधिकारियों का उल्लेख मिलता है।
कुलपति (परिवार का मुखिया), विशपति (विश का प्रधान), ब्राजपति (चरागाह का अधिकारी), ग्रामणी (ग्राम का प्रधान) स्पश (गुप्तचर) तथा दूत नामक अधिकारी भी काफी महत्वपूर्ण थे। इन अधिकारियों के अतिरिक्त सुत, रथकार एवं कमोर नामक अधिकारी का भी उल्लेख मिलता है। संभवत: उन्हें रत्नीन माना गया है। 12 रत्नीन का उल्लेख मिलता है जो राज्याभिषेक के समय पर उपस्थित रहते थे।
शारीरिक दण्ड तथा जुर्माने किये जाते थे। हत्या करने के अपराध में धनदान द्वारा मुक्त होने की प्रथा थी। एक व्यक्ति को 'शतदाय' कहा गया है क्योंकि उसके जान की कीमत 100 गायें थीं। सबसे बड़ा अपराध पशुचोरी को माना जाता था।
उग्र एवं जीव गृभ संभवतः पुलिस अधिकारी थे।
ऋग्वेद के 'दस्यु' सम्भवतः इस देश के मूल निवासी थे और इन्हें हराने वाला त्रसदस्यु एक आर्य मुखिया था।
दशराज्ञ युद्ध' भरत वर्ग का राजा सुदास और दस राजाओं (पांच आर्य व पांच अनार्य) के बीच पुरुष्णी (रावी) नदी के तट पर हुआ। सुदास की ओर से वशिष्ठ व दस राजाओं की ओर से विश्वामित्र पुरोहित थे। सुदाश विजयी हुआ।
भरत नाम का उल्लेख पहली बार ऋग्वेद में आया है और इसी के आधार पर हमारे देश का नाम भारत वर्ष पड़ा।
ऋग्वैदिक सामाजिक जीवन
आर्य समाज पितृसत्तात्मक था, परन्तु नारी को मातृरूप में पर्याप्त सम्मान प्राप्त था। वह अपने पति के साथ अनुष्ठानों में भाग लेती थी। परिवार की संपदा का मापदंड परिवार की वृहदता थी। संयुक्त परिवार की व्यवस्था थी जिसमें सभी संबंधी एक साथ रहते थे। नप्त शब्द का प्रयोग भतीजे, प्रपौत्र, चचेरे भाई-बहिन इत्यादि के लिए किया गया है। चावल और जौ दो मुख्य खाद्य फसल थे।
ऋग्वेद के नवें मण्डल तथा छहों अन्य सूक्तों में सोमरस की प्रशंसा की गयी है। सोमवल्ली मूजवंत पर्वत पर अथवा कीकटों के देश में उत्पन्न होती थी।
आर्य प्रमुखतः तीन प्रकार के वस्त्र धारण करते थे: (1) वास (2)अधिवास तथा (3)नीवी। शरीर के नीचे के भाग पर वास पहना जाता था, शरीर के ऊपरी भाग पर अधिवास पहना जाता था एवं नीवी को वास के नीचे पहना जाता था।
ऋग्वेद में 'उष्णीष' अर्थात् सर पर धारण की जाने वाली पगड़ी का भी उल्लेख है।
नाई को 'नप्ता' कहा जाता था।
आमोद-प्रमोद के लिए विभिन्न उत्सवों तथा 'समनों का आयोजन किया जाता था।
पर्दे की प्रथा नहीं थी। शिक्षा के द्वार स्त्रियों के लिए भी खुले थे। लोपामुद्रा, विश्ववरा, अपाला, सिक्ता तथा घोषा ने तो वेद मन्त्रों की रचना की थी और ऋषि पद को प्राप्त कर लिया था।
विष्पला नामक स्त्री लडाई में गयी थी। स्त्रियों को यज्ञ करने का भी अधिकार था।
विवाह के मामलों में स्त्रियों को बड़ी स्वतंत्रता थी। वे अपनी रुचि के अनुसार विवाह करती थीं। ऋग्वेद में कहीं भी बाल-विवाह का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से उल्लेख नहीं मिलता। एक स्थान पर ऋग्वेद में उल्लेखित है कि घोषा नामक स्त्री धर्म रोग के कारण प्रौढ़ावस्था तक अविवाहिता रही थी।
विधवा विवाह तथा नियोग प्रथा का प्रचलन था। नियोग प्रथा के तहत संतान नहीं होने से देवर के साथ शारीरिक संबंध बनाये जाते थे।
ऋग्वेद में चिकित्सक के लिए भीषज शब्द का प्रयोग होता था।
चार वर्णों-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र का उल्लेख पुरुषक्त में मिलता है। ऋग्वेद के 10वें मण्डल में पहली बार शूद्र का उल्लेख हुआ है। ऋग्वेद में 'वर्ण' शब्द का प्रयोग रंग के अर्थ में हुआ है।
व्यावसायिक स्वतन्त्रता का सबसे अच्छा उदाहरण ऋग्वेद का वह मंत्र प्रस्तुत करता है, जिसमें एक ऋषि कहता है कि 'मैं कवि हूं, मेरी माता आटा पीसती है और पिता वैद्य है।
ऋग्वेद में रथकार, कुम्भकार चर्मकार और बुनकर जैसे कुछ व्यवसायिक समुदायों के नाम मिलते हैं, लेकिन वे उस काल में अलग-अलग जातियों के द्योतक नहीं थे।
ऋग्वैदिक राजनैतिक संरचना
ऋग्वेद में आर्यों के पांच कबीले पंचजन्य कहे जाते थे। इनमें शामिल थे; अनु, द्रुयु, पुरु, तुर्वस व यदु।
कुल या परिवारः कुल या परिवार सामाजिक व्यवस्था के साथ-साथ राजनैतिक व्यवस्था की इकाई था। परिवार के प्रमुख को 'कुलप' या 'गृहपति' कहा जाता था।
ग्रामः कई गृह या कुल या परिवार के समूहों को मिलाकर ग्राम बनता था। इसका प्रधान ग्रामणी था।
विशः ग्राम के ऊपर 'विश' थे। विश का प्रधान 'विशपति' कहलाता था।
जनः कई विशों के समूह को जन कहा जाता था। ऋग्वेद में जन का प्रयोग 275 बार हुआ है।
राष्ट्रः सम्पूर्ण राज्य के लिए 'राष्ट्र' शब्द का प्रयोग किया जाता था। ऋग्वेद में 'राष्ट्र' के पर्यायवाची रूप में 'गण' शब्द का भी उल्लेख मिलता है।
राजा को 'जन का रक्षक' (गोप्ता जनस्य) तथा दुर्गों का भेदन करने वाला (पुराभेता) कहा गया है।
राजा का प्रमुख कर्त्तव्य प्रजा की रक्षा करना था। रक्षा के बदले प्रजा उसे उपहारादि देती थी। ऋग्वेद में 'बलि' शब्द का उल्लेख कई स्थानों पर मिलता है। 'बलि' मुख्यतः अन्न के रूप में स्वेच्छा से दिया जाता था। ऋग्वेद में राजा के लिए 'विशमत्ता समजनि' पद आया है जिसका अर्थ है उत्पादकों का भक्षण करने वाला।
युद्ध के लिए राजा के पास सेना होती थी। शर्ध, व्रात तथा गण सेना की इकाइयां थीं।
'सभा', 'समिति' और 'विदथ' नामक संस्थाएं राजा की निरंकुशता पर नियंत्रण रखती थीं। 'सभा' कुलीन अथवा वृद्ध मनुष्यों की संस्था थी जिसमें उच्च कुल में उत्पन्न व्यक्ति ही भाग ले सकते थे। इसके विपरीत समिति सर्वसाधारण की सभा होती थी, जिसमें जनों के सभी व्यक्ति अथवा परिवारों के प्रमुख भाग ले सकते थे।
अथर्ववेद में सभा और समिति को 'प्रजापति की दो पुत्रियां' कहा गया है। विदथ में युद्ध की लूट का वितरण किया जाता था। युद्ध मुख्य रूप से पशुओं के लिए होता था।
ऋग्वेद में पुरोहित, सेनानी तथा ग्रामणी, इन तीनों अधिकारियों का उल्लेख मिलता है।
कुलपति (परिवार का मुखिया), विशपति (विश का प्रधान), ब्राजपति (चरागाह का अधिकारी), ग्रामणी (ग्राम का प्रधान) स्पश (गुप्तचर) तथा दूत नामक अधिकारी भी काफी महत्वपूर्ण थे। इन अधिकारियों के अतिरिक्त सुत, रथकार एवं कमोर नामक अधिकारी का भी उल्लेख मिलता है। संभवत: उन्हें रत्नीन माना गया है। 12 रत्नीन का उल्लेख मिलता है जो राज्याभिषेक के समय पर उपस्थित रहते थे।
शारीरिक दण्ड तथा जुर्माने किये जाते थे। हत्या करने के अपराध में धनदान द्वारा मुक्त होने की प्रथा थी। एक व्यक्ति को 'शतदाय' कहा गया है क्योंकि उसके जान की कीमत 100 गायें थीं। सबसे बड़ा अपराध पशुचोरी को माना जाता था।
उग्र एवं जीव गृभ संभवतः पुलिस अधिकारी थे।
.
ऋग्वेद में पशुपालन का स्थान सबसे महत्वपूर्ण स्थान था। पालतू पशुओं में गाय, बैल, भेड, बकरी, गधे आदि प्रमुख थे।
आयों के जीवन में गाय का विशेष महत्व था। उसे अघन्या' समझा जाता था। गोमत संपदा का सूचक था। अर्थात जिसके पास अधिक पश होता था उसे गोमत कहा जाता था। पुत्री को दौहित्री कहा जाता था क्योंकि वह दूध दुहती थी। दूरी को गवयुति कहा जाता था।
गविष्टि (गाय की खोज) के लिए आयाँ के विभिन्न कबीलों के आपस में और अनार्य कबीलों के साथ युद्ध होते रहते थे।
कृषिः पशुपालन के साथ साथ पूर्व वैदिक काल के लोग कृषि भी करते थे। ऋग्वेद के चौथे मंडल में कृषि प्रणाली एवं कृषि के उपकरणों का सविस्तार वर्णन है।
ऋग्वेद के मूल भाग में कृषि के लिए केवल तीन शब्द आये हैं; ऊर्दर, धान्य एवं वपंति।
ऋग्वेद में चरिष्णी एवं दृष्टि जैसे शब्द कृषि के लिए, और कर्षण जुताई के लिए आये हैं। इसी ग्रंथ में फसलें, हंसिया और खेती के सभी कार्य, जैसे- जुताई, बुवाई, सिंचाई, कटाई और मड़ाई आदि का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेद में हल का भी उल्लेख मिलता है। हल के लिये 'लांगल' शब्द का प्रयोग हुआ है। कृषि काठ के बने हल और बैल से होती थी। ऋग्वेद काल में कुछ हद तक सिंचाई की भी व्यवस्था थी। सिंचाई के लिए कुएं का प्रयोग होता था अथवा नदी से नहरें निकाली जाती थीं।
नहर के लिए 'कुल्चा' शब्द आया है। खाद का भी प्रयोग होता था। आर्यों को 5 ऋतुओं का ज्ञान था।
आर्य लोग खाद्य फसलों के लिए मात्र 'यव' शब्द का प्रयोग करते थे।
बढ़ई के लिए तक्षण शब्द व्यवहत था। जुलाहे वस्त्र बुनते थे। उन्हें 'वाथ' कहा जाता था। सूत कातने का काम स्त्रियाँ करती थीं। वैदिक काल का सबसे पुराना उद्योग वस्त्र उद्योग था। चर्मकार चमड़े से विभिन्न उपयोगी वस्तुएं बनाते थे।
ऋग्वेद में 'अयस' शब्द का प्रयोग तांबा या कांसा धातु के लिए किया गया है। कर्मकार इन धातुओं से हाथियार और घरेलू उपकरण बनाते थे। हिरण्यकार सोने का आभूषण बनाते थे। वैद्यों (भिषज) का व्यवसाय भी महत्वपूर्ण था। अश्विनों को देवताओं का वैद्य बताया गया है।
यद्यपि ऋग्वेद में समुद्र का उल्लेख मिलता है, तथापि इससे विदेशी व्यापार की पुष्टि नहीं होती। समुद्र शब्द का व्यवहार संभवतः बड़ी नदियों या संचित जल के लिए किया गया है।
वणिक' या 'निष्क' व्यापार या सिक्के के प्रचलन की पुष्टि नहीं करते। ये विनिमय के साधन थे। सुदखोरों के लिए बेकनाट का प्रयोग हुआ है।
ऋग्वैदिक आर्थिक अवस्था
ऋग्वेद में पशुपालन का स्थान सबसे महत्वपूर्ण स्थान था। पालतू पशुओं में गाय, बैल, भेड, बकरी, गधे आदि प्रमुख थे।
आयों के जीवन में गाय का विशेष महत्व था। उसे अघन्या' समझा जाता था। गोमत संपदा का सूचक था। अर्थात जिसके पास अधिक पश होता था उसे गोमत कहा जाता था। पुत्री को दौहित्री कहा जाता था क्योंकि वह दूध दुहती थी। दूरी को गवयुति कहा जाता था।
गविष्टि (गाय की खोज) के लिए आयाँ के विभिन्न कबीलों के आपस में और अनार्य कबीलों के साथ युद्ध होते रहते थे।
कृषिः पशुपालन के साथ साथ पूर्व वैदिक काल के लोग कृषि भी करते थे। ऋग्वेद के चौथे मंडल में कृषि प्रणाली एवं कृषि के उपकरणों का सविस्तार वर्णन है।
ऋग्वेद के मूल भाग में कृषि के लिए केवल तीन शब्द आये हैं; ऊर्दर, धान्य एवं वपंति।
ऋग्वेद में चरिष्णी एवं दृष्टि जैसे शब्द कृषि के लिए, और कर्षण जुताई के लिए आये हैं। इसी ग्रंथ में फसलें, हंसिया और खेती के सभी कार्य, जैसे- जुताई, बुवाई, सिंचाई, कटाई और मड़ाई आदि का उल्लेख मिलता है।
ऋग्वेद में हल का भी उल्लेख मिलता है। हल के लिये 'लांगल' शब्द का प्रयोग हुआ है। कृषि काठ के बने हल और बैल से होती थी। ऋग्वेद काल में कुछ हद तक सिंचाई की भी व्यवस्था थी। सिंचाई के लिए कुएं का प्रयोग होता था अथवा नदी से नहरें निकाली जाती थीं।
नहर के लिए 'कुल्चा' शब्द आया है। खाद का भी प्रयोग होता था। आर्यों को 5 ऋतुओं का ज्ञान था।
आर्य लोग खाद्य फसलों के लिए मात्र 'यव' शब्द का प्रयोग करते थे।
बढ़ई के लिए तक्षण शब्द व्यवहत था। जुलाहे वस्त्र बुनते थे। उन्हें 'वाथ' कहा जाता था। सूत कातने का काम स्त्रियाँ करती थीं। वैदिक काल का सबसे पुराना उद्योग वस्त्र उद्योग था। चर्मकार चमड़े से विभिन्न उपयोगी वस्तुएं बनाते थे।
ऋग्वेद में 'अयस' शब्द का प्रयोग तांबा या कांसा धातु के लिए किया गया है। कर्मकार इन धातुओं से हाथियार और घरेलू उपकरण बनाते थे। हिरण्यकार सोने का आभूषण बनाते थे। वैद्यों (भिषज) का व्यवसाय भी महत्वपूर्ण था। अश्विनों को देवताओं का वैद्य बताया गया है।
यद्यपि ऋग्वेद में समुद्र का उल्लेख मिलता है, तथापि इससे विदेशी व्यापार की पुष्टि नहीं होती। समुद्र शब्द का व्यवहार संभवतः बड़ी नदियों या संचित जल के लिए किया गया है।
वणिक' या 'निष्क' व्यापार या सिक्के के प्रचलन की पुष्टि नहीं करते। ये विनिमय के साधन थे। सुदखोरों के लिए बेकनाट का प्रयोग हुआ है।
धार्मिक जीवन
ऋग्वेद का धार्मिक जीवन तथा मान्यताएं भौतिक जीवन से प्रभावित थी।
ऋग्वेद में ऋत् की अवधारणा देखी जाती है। इसे 'सृष्टि की नियमितता', भौतिक एवं नैतिक व्यवस्था', 'अंतरिक्षीय एवं नैतिक व्यवस्था' के रूप में माना गया। ऋत को नैतिक व्यवस्था और देवताओं का नियामक माना गया है।
विष्णु, मरुत, उषा यहां तक कि सम्पूर्ण विश्व को ऋत् पर आधारित माना गया। इसी के द्वारा लोगों को भौतिक समृद्धि एवं जीवन- यापन के अन्य साधन प्राप्त होते थे। वरुण को 'ऋतस्य गोपा' कहा गया है। ऋत की रक्षा और स्थापना पासा खेलकर होती थी।
ऋग्वैदिक आर्य प्रकृति पूजक एवं बहुदेववादी थे। प्रकृति की जिन शक्तियों से आर्य प्रभावित थे वे उनकी पूजा करते थे।
33 देवताओं का उल्लेख मिलता है जिनको तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है;
1. पार्थिवः पृथ्वी, अग्नि, सोम, वृहस्पति इत्यादि।
2.अन्तरिक्ष देवताः इन्द्र, वरुण, वायु, मरुत, रुद्र
2.आकाशीय देवताः वरुण, मित्र, सूर्य, उषा,सविता, अश्विन।
देवताओं में सर्वोच्च स्थान युद्ध के देवता इन्द्र को दिया गया है। इसकी स्तुति के लिए लगभग 250 मंत्रों की रचना की गयी है। इन्द्र शक्ति, नैतिकता एवं न्याय का देवता था। इन्द्र को 'पुरंदर', 'पुलवि', 'पुरभिद' तथा 'अत्सुजीत' भी कहा गया है।
अग्नि दूसरा प्रमुख देवता था। उनके सम्मान में 200 मंत्रों की रचना हुई है। वह देवताओं और मानवों के बीच सम्पर्क का काम करता था। उसी के द्वारा देवता अपना आहार प्राप्त करते थे। उन्हें 'अथर्वन' भी कहा गया है।
तीसरा महत्वपूर्ण देवता वरुण था। उसकी स्तुति लगभग 30 सूक्तों में की गयी है। वह जल का देवता एवं ऋतु का संरक्षक था। वरुण के साथ मित्र का भी उल्लेख है और दोनों मिलकर 'मित्रावरुण' कहलाते थे।
मित्रः शपथ एवं प्रतिज्ञा का देवता
सोमः वनस्पति का देवता
अश्विनः चिकित्सा का देवता
रुद्रः अनैतिक आचरणों से सम्बद्ध (त्रयंबक)
मरुतः तूफान का देवता था
पूषनः पशुओं का देवता, (उतरवैदिक काल में शुद्रों के देवता हो गये)।
पर्जन्यः बादल का देवता
देविओं में प्रमुख अदिति एवं उषा थीं।
इन देवताओं एवं देवियों के अतिरिक्त कुछ अर्द्ध देवताओं एवं कुछ अन्य देवियों का भी उल्लेख मिलता है। विश्वोदेवा, आर्यमन, ऋभु, गंधव आदि प्रमुख अर्द्धदेवता थे। अन्य देवियों में प्रमुख थीं- निषा, अरण्यानि, सरस्वति एवं पृथ्वी।
देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मंत्रों का उच्चारण कर उनकी स्तुति की जाती थी तथा यज्ञाहुति दी जाती थी।
ऋग्वैदिक लोग देवताओं से मोक्ष की नहीं, बल्कि शतवर्षीय आयु, पुत्र, धन-धान्य और विजय की कामना करते थे।
प्रमुख यज्ञों में ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ तथा अनेक प्रकार के निमित्तिक यज्ञ (पुत्रकामेष्टि, लोकेष्टि) थे।
कोई टिप्पणी नहीं
If you have any doubts please let me know...