मौर्योत्तर काल PART - 1
मौर्यों के बाद सबसे पहले जो देशी राजवंश आया वह शुंग वंश था। उसके बाद क्रमशः कण्व, सातवाहन आदि वंश अलग-अलग क्षेत्रों में सत्तारूढ़ हुए।
शुंग राजवंश ( 185-73 ई.पू.)
'हर्षचरित' के अनुसार सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने अंतिम मौर्य राजा वृहद्रथ की हत्या सेनाओं का निरीक्षण करते समय किया तथा उसके बाद 185 ई.पू. में गद्दी पर बैठा।
शुंग पश्चिम भारत के उज्जैन अंचल से आये थे, जहां वे मौर्यों के अंतर्गत अधिकारी थे।
अवंति पर नियंत्रण सुदृढ़ करने के लिए उसने 'विदिशा' को अपनी राजधानी बनाया। विदिशा में पुष्यमित्र ने अपने पुत्र अग्निमित्र को राज-प्रतिनिधि के रूप में रखा।
पातंजलि के महाभाष्य, गार्गी संहिता तथा कालिदास के 'मालविकाग्निमित्रम्' के अनुसार पुष्यमित्र को दो बार यवनों के आक्रमण का सामना करना पड़ा।
पुष्यमित्र का प्रथम यवन संघर्ष 'डेमेट्रियस' से हुआ था। द्वितीय यवन संघर्ष यवन सेनापति मिनान्डर से हुआ था, जिसमें पुष्यमित्र का पौत्र वसुमित्र सेनापति था।
पुष्यमित्र शुंग ने पतंजलि के नेतृत्व में दो अश्वमेध यज्ञ किये।
अयोध्या शिलालेख पुष्यमित्र शुंग से संबंधित है।
बौद्ध ग्रंथों दिव्यावादान, आर्यमंजूश्रीमूलकल्प आदि के अनुसार पुष्यमित्र बौद्ध धर्म का प्रबल विरोधी था।
पुष्यमित्र के प्रयास से ही पातंजलि ने अष्टाध्यायी ग्रन्थ पर महाभाष्य लिखा।
बौद्ध साहित्यों में पुष्यमित्र शुंग को बौद्धों का हत्यारा और बौद्ध मठों एवं विहारों को नष्ट करने वाला बताया गया है।
कालिदास की कृति मालविकाग्निमित्रम्' का नायक अग्निमित्र पुष्यमित्र शुंग का पुत्र था।
पुराणों के अनुसार शुंग वंश में 9 शासक हुए और उन्होंने 112 वर्षों तक राज्य किया।
शुंग शासक भद्रक के समय हेलियोडोरस ने विदिशा में गरूड़ स्तंभ स्थापित करवाया था।
अंतिम शुंग शासक देवभूति की हत्या कर उसके मंत्री वासुदेव काण्व ने 73 ई.पू. में काण्व वंश की नींव डाली।
भरहुत के स्तूप में जंगलों का निर्माण; सांची तथा बोधगया के स्तूपों की वेदिकाओं का निर्माण तथा इन बौद्ध स्तूपों में भव्य पत्थर के द्वार का निर्माण इसी काल में हुआ।
पूना के निकट भज का बिहार, भज का एक बड़ा चैत्य इसी काल में निर्मित हुआ।
अजन्ता में चैत्य संख्या 9, भरहुत में वृक्ष देवता, बेसनगर का गरूड़स्तंभ तथा नासिक के चैत्य- कक्ष का निर्माण भी इसी काल में हुआ।
विसेन्ट स्मिथ, एन.एन.घोष, विद्वानों के अनुसार पुष्यमित्र ने अशोक द्वारा बनवाये गये 8400 बौद्ध स्तूपों को नष्ट करवा दिया तथा पाटलिपुत्र के कुक्कुटराम विहार को नष्ट करवाने का प्रयास किया था।
काण्व वंश (73 ई.पू.-28 ई.पू.)
काण्व वंश की स्थापना वासुदेव (ब्राह्मण) ने 73 ई.पू. में अंतिम शुंग शासक देवभूति की हत्या कर के की थी।
इस वंश के शासकों के कुछ सिक्के मिले हैं जिन पर 'भूमिमित्र' खुदा है, जो कि अनुमानतः भूमिमित्र के शासन काल जारी किये गये होंगे। पुराण के अनुसार आंध्र भृत्यों द्वारा कण्व वंश का पतन हुआ।
पुराणों के अनुसार इस वंश में चार शासक हुए जिन्होंने 45 वर्षों तक शासन किया। अंतिम कण्व वंशी शासक सुशर्मा की हत्या, उसके सामंत सिमुक ने कर दी।
आंध्र-सातवाहन वंश
पुराणों में सातवाहन वंश को आन्ध्र भृत्य एवं आन्ध्र जातीय कहा गया है। सातवाहनों के पूर्वज पहले मौर्यों के सामंत थे।
"सिमुक' नामक व्यक्ति ने अंतिम कण्व शासक 'सुशर्मा' की हत्या कर सातवाहन वंश की नींव डाली।
सिमुक के विषय में अधिकांश जानकारी हमें पुराण एवं नानाघाट प्रतिमा लेख से मिलती है।
सातवाहन वंश की स्मृति लोक कथाओं में शालिवाहन राजा के कहानी के रूप में मालूम पड़ती है।
सातवाहन शक्ति का केन्द्र महाराष्ट्र में प्रतिष्ठान (पैठन) था, जो एक प्रमुख व्यापारिक नगर तथा राजधानी भी था। उनकी प्रारम्भिक राजधानी धान्यकटक या धरणीकोट थी।
.
के.पी. जायसवाल के अनुसार सातवाहन अशो के अभिलेखों में वर्णित 'सतियपुत्त' थे।
नासिक अभिलेख में गौतमी पुत्र शातकर्णी को 'एक बम्हन्स' (अद्वितीय ब्राह्मण) कहा गया है। उसे क्षत्रियों के दर्प और मान को दलने वाला कहा गया है।
प्लिनी, टॉलेमी तथा पेरीप्लस के लेखक के विवरण भी सातवाहनों के इतिहास पर कुछ प्रकाश डालते हैं।
जैन गाथाओं के अनुसार सिमुक ने जैन और बौद्ध मंदिरों का निर्माण करवाया था।
कृष्णः नासिक में एक गुफा इसके शास काल में खुदवायी गयी थी।
शातकर्णी प्रथमः इसके नाम का उल्लेख 'पेरीप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी' में मिलता है।
शातकर्णी प्रथम के शासन के बारे में नागनिका एवं नानाघाट अभिलेख से महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इसने अगिय या अमिय वंश की राजकुमारी नागनिका से विवाह किया।
शातकर्णी प्रथम का खारवेल से भी युद्ध हुआ जिसमें शातकर्णी पराजित हुआ था। शातकर्णी की उपाधियां थीं; दक्षिणा पथपति, प्रतिष्ठानपति, पश्चिमपति, अप्रतिहतचक्र।
'श्री सात' नाम की प्राप्त मुद्राओं से शातकर्णी का पश्चिम मालवा पर अधिकार स्पष्ट होता है। इसने प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनाया तथा दो अश्वमेध और एक राजसूय यज्ञ कर 'सम्राट' की उपाधि धारण की।
शातकर्णी के बाद उसकी विधवा नागनिका ने अपने नाबालिक पुत्रों वेदश्री तथा शक्तिश्री की संरक्षिका के रूप में शासन किया।
हाल: यह सातवाहन वंश का 17 वां राजा था। उसने प्राकृत भाषा में 'गाथा सप्तशती' नामक पुस्तक की रचना भी की थी। इस पुस्तक में ग्राम्य जीवन की मनोहारी झांकी मिलती है। इसमें पुराण कथाएं तथा दार्शनिक विचार दोनों ही सम्मिलित हैं।
वृहत-कथा का रचियता गुणाढ्य तथा कातन्त्र नामक संस्कृत व्याकरण का लेखक शर्ववर्मन हाल के राज्य के प्रसिद्ध लेखक द्वय थे।
गौतमी पुत्र शातकर्णीः यह सातवाहन वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक था। उसकी उपाधि 'वर-वरूण-विक्रम-चार विक्रम' थी। इसका अर्थ है वह व्यक्ति जिसकी चाल बढ़िया हाथी की तरह हो।
नासिक प्रशस्ति में इसे क्षहरात वंश का विनाशक तथा सातवाहन वंश की प्रतिष्ठा का पुनः संस्थापक कहा गया है।
गौतमीपुत्र शातकर्णी ने एक सैनिक अभियान में क्षहरात नरेश नहपान तथा उषावदात को पराजित कर मार डाला था।
इसके समय से राज्य में मातृसत्तात्मक तत्व महत्वपूर्ण हो गये।
नासिक प्रशस्ति तथा रानी गौतमी बलश्री के नासिक गुहा अभिलेखों से गौतमी पुत्र शातकर्णी के विजय अभियानों का पता चलता है।
नासिक प्रशस्ति तथा 'जोगलथेंबी' (जिला नासिक) से प्राप्त चांदी के सिक्कों से यह विदित होता है कि सातवाहन राजा ने शक-शासक नहपान को पराजित किया तथा उसके सिक्कों पर अपना नाम खुदवाया।
गौतमी पुत्र शातकर्णी ने 'वेणकटक' नामक नगर की स्थापना की तथा 'वेणकटक स्वामी' की उपाधि धारण की।
वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी की नासिक-प्रशस्ति में गौतमीपुत्र शातकर्णी का उल्लेख शक, यवन, पहलव निस्दन, क्षहरात वंश निखसेसकर, सातवाहन कुलय पतिथापनकर के रूप में किया गया है।
उत्तर में मालवा तथा काठियावाड़ से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक पूर्व में विदर्भ से लेकर पश्चिम में कोंकण तक का संपूर्ण प्रदेश गौतमीपुत्र के प्रत्यक्ष शासन में था।
के.पी. जायसवाल के अनुसार सातवाहन अशो के अभिलेखों में वर्णित 'सतियपुत्त' थे।
नासिक अभिलेख में गौतमी पुत्र शातकर्णी को 'एक बम्हन्स' (अद्वितीय ब्राह्मण) कहा गया है। उसे क्षत्रियों के दर्प और मान को दलने वाला कहा गया है।
प्लिनी, टॉलेमी तथा पेरीप्लस के लेखक के विवरण भी सातवाहनों के इतिहास पर कुछ प्रकाश डालते हैं।
जैन गाथाओं के अनुसार सिमुक ने जैन और बौद्ध मंदिरों का निर्माण करवाया था।
कृष्णः नासिक में एक गुफा इसके शास काल में खुदवायी गयी थी।
शातकर्णी प्रथमः इसके नाम का उल्लेख 'पेरीप्लस ऑफ दि एरिथ्रियन सी' में मिलता है।
शातकर्णी प्रथम के शासन के बारे में नागनिका एवं नानाघाट अभिलेख से महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। इसने अगिय या अमिय वंश की राजकुमारी नागनिका से विवाह किया।
शातकर्णी प्रथम का खारवेल से भी युद्ध हुआ जिसमें शातकर्णी पराजित हुआ था। शातकर्णी की उपाधियां थीं; दक्षिणा पथपति, प्रतिष्ठानपति, पश्चिमपति, अप्रतिहतचक्र।
'श्री सात' नाम की प्राप्त मुद्राओं से शातकर्णी का पश्चिम मालवा पर अधिकार स्पष्ट होता है। इसने प्रतिष्ठान को अपनी राजधानी बनाया तथा दो अश्वमेध और एक राजसूय यज्ञ कर 'सम्राट' की उपाधि धारण की।
शातकर्णी के बाद उसकी विधवा नागनिका ने अपने नाबालिक पुत्रों वेदश्री तथा शक्तिश्री की संरक्षिका के रूप में शासन किया।
हाल: यह सातवाहन वंश का 17 वां राजा था। उसने प्राकृत भाषा में 'गाथा सप्तशती' नामक पुस्तक की रचना भी की थी। इस पुस्तक में ग्राम्य जीवन की मनोहारी झांकी मिलती है। इसमें पुराण कथाएं तथा दार्शनिक विचार दोनों ही सम्मिलित हैं।
वृहत-कथा का रचियता गुणाढ्य तथा कातन्त्र नामक संस्कृत व्याकरण का लेखक शर्ववर्मन हाल के राज्य के प्रसिद्ध लेखक द्वय थे।
गौतमी पुत्र शातकर्णीः यह सातवाहन वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक था। उसकी उपाधि 'वर-वरूण-विक्रम-चार विक्रम' थी। इसका अर्थ है वह व्यक्ति जिसकी चाल बढ़िया हाथी की तरह हो।
नासिक प्रशस्ति में इसे क्षहरात वंश का विनाशक तथा सातवाहन वंश की प्रतिष्ठा का पुनः संस्थापक कहा गया है।
गौतमीपुत्र शातकर्णी ने एक सैनिक अभियान में क्षहरात नरेश नहपान तथा उषावदात को पराजित कर मार डाला था।
इसके समय से राज्य में मातृसत्तात्मक तत्व महत्वपूर्ण हो गये।
नासिक प्रशस्ति तथा रानी गौतमी बलश्री के नासिक गुहा अभिलेखों से गौतमी पुत्र शातकर्णी के विजय अभियानों का पता चलता है।
नासिक प्रशस्ति तथा 'जोगलथेंबी' (जिला नासिक) से प्राप्त चांदी के सिक्कों से यह विदित होता है कि सातवाहन राजा ने शक-शासक नहपान को पराजित किया तथा उसके सिक्कों पर अपना नाम खुदवाया।
गौतमी पुत्र शातकर्णी ने 'वेणकटक' नामक नगर की स्थापना की तथा 'वेणकटक स्वामी' की उपाधि धारण की।
वशिष्ठीपुत्र पुलुमावी की नासिक-प्रशस्ति में गौतमीपुत्र शातकर्णी का उल्लेख शक, यवन, पहलव निस्दन, क्षहरात वंश निखसेसकर, सातवाहन कुलय पतिथापनकर के रूप में किया गया है।
उत्तर में मालवा तथा काठियावाड़ से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक पूर्व में विदर्भ से लेकर पश्चिम में कोंकण तक का संपूर्ण प्रदेश गौतमीपुत्र के प्रत्यक्ष शासन में था।
गौतमीपुत्र शातकर्णी के विषय में कहा गया है कि उसके घोड़ों ने तीनों समुद्र का पानी पिया था। इसलिए उसे त्रि-समुद्र-तोय पिता वाहन भी कहा जाता है।
यहां तीनों समुद्रों से तात्पर्य बंगाल की खाड़ी, अरब सागर तथा हिंद महासागर से है।
नासिक प्रशस्ति में गौतमीपुत्र की प्रशंसा इन शब्दों में की गयी है- 'जिसने अनेक युद्धों को जीता था, जिसकी विजयिनी पताका अपराजित थी, जिसकी राजधानी शत्रुओं द्वारा अनाक्रमणीय थी, जो शक्ति में राम, केशव, अर्जुन तथा भीमसेन के तुल्य था तथा जो नहुष, जनमेजय, सागर, यथाति, राम, अंबरीष के समान तेजस्वी था।'
उसने नासिक के पास पाण्डुलेन में एक गुफा गृह बनवाकर उसका दान किया।
वशिष्ठी पुत्र पुलुमावीः पुराणों में इसका नाम पुलोमा शातकर्णी तथा टालमी के विवरण में सिरो-पोलिमेओस मिलता है।
पुलुमावी के अभिलेखही सातवाहन राजाओं के अभिलेखों में आंध्र प्रदेश में सबसे प्राचीन हैं। इसके अभिलेख नासिक, कार्ले और अमरावती से मिले हैं। पुलुमावी के शासनकाल के उन्नीसवें वर्ष में नासिक गुहालेख उत्कीर्ण करायी गयी थी
उसके कुछ सिक्कों पर दो पतवारों वाले जहाज का चित्र बना हुआ है।
इसी के शासन काल में अमरावती बौद्ध स्तूप के चारों ओर वेष्टिनी का निर्माण कर स्तूप को संवर्धित किया गया। इसने 'नवनगर' की स्थापना की थी। इसने नवनगरस्वामी, महाराज, दक्षिणापथेश्वर की उपाधि धारण की।
श्री शिव शातकर्णी ने शकों के साथ मैत्री पूर्ण संबंध बनाए रखने के लिए शक-महाक्षत्रप रुद्रादमन प्रथम की पुत्री से विवाह किया।
यज्ञश्री शातकर्णी को वाणभट्ट ने इसे 'त्रि-समुद्राधिपति' कहा है। यह सातवाहन वंश का अंतिम महान शासक था।
इसके सिक्कों पर पानी जहाज की आकृति, शंख, मछली खुदी है। इस शासक के बाद सातवाहन साम्राज्य आभीर, वाकाटक, इच्छवाकुओं के बीच बंट गया।
.
सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत थी।
शासकों ने अपनी तुलना राम, भीम, केशव आदि देवताओं और महापुरुषों के साथ की।
सर्वप्रथम भूमि अनुदानों का अभिलेखीय साक्ष्य सातवाहनों का ही है, जब महाराष्ट्र में अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर उपहार स्वरूप पुरोहितों को एक गांव दिया गया था।
प्रशासनिक अधिकार पहले पहल गौतमी पुत्र शतकर्णी ने दक्कन में बौद्ध भिक्षुओं को अनुदान देते समय छोड़ा।
सैनिक टुकड़ी गुल्म तथा किलेबंद बस्तियां शलिकट्टा कहलाती थीं।
प्रशासन
सातवाहनों की राजकीय भाषा प्राकृत थी।
शासकों ने अपनी तुलना राम, भीम, केशव आदि देवताओं और महापुरुषों के साथ की।
सर्वप्रथम भूमि अनुदानों का अभिलेखीय साक्ष्य सातवाहनों का ही है, जब महाराष्ट्र में अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर उपहार स्वरूप पुरोहितों को एक गांव दिया गया था।
प्रशासनिक अधिकार पहले पहल गौतमी पुत्र शतकर्णी ने दक्कन में बौद्ध भिक्षुओं को अनुदान देते समय छोड़ा।
सैनिक टुकड़ी गुल्म तथा किलेबंद बस्तियां शलिकट्टा कहलाती थीं।
समाज तथा अर्थव्यवस्था
समाज की प्रमुख ईकाई कुटुंब थी जिसका प्रधान कुटबिन था।
सातवाहन युगीन समाज वर्णाश्रम धर्म पर आधारित था। सातवाहन नरेश स्वयं ब्राह्मण थे।
समाज में स्त्रियों की दशा अच्छी थी। कभी-कभी वे शासन के कार्यों में भी भाग लेती थीं। रानी नागनिका ने अपने पति की मृत्यु के बाद शासन का संचालन किया था।
भरूकच्छ, कल्याण, सोपारा आदि प्रमुख पश्चिमी तट के बंदरगाह थे।
व्यापारी एवं शिल्पी, संघों, श्रेणियों एवं निकायों में संगठित थे।
सातवाहनों ने तांबा, सीसा, पोटीन के सिक्के काफी मात्रा में चलाए।
इस काल का सबसे बड़ा सिक्का सुवर्ण था जो चांदी के 35 कर्षापण के बराबर होता था। इससे नीचे चांदी का 'कुषण' नाम का सिक्का था। सबसे छोटे चांदी के सिक्के 'कर्षापण' थे जो सामान्य व्यवहार में आते थे।
राजा कृषकों के उपज का छठा भाग कर के रूप में प्राप्त करता था।
इस काल में अमरावती, नागार्जुन कोंडा,नासिक, जुन्नार इत्यादि बौद्ध धर्म के प्रमुख केन्द्र बन गये। कार्ले का चैत्य इन्हीं के समय निर्मित हुआ था।
सातवाहन शासक संकर्षण, वासुदेव, इन्द्र, सूर्य और चन्द्र की पूजा करते थे।
मौर्योत्तर काल PART - 2
मौर्योत्तर काल PART - 3
मौर्योत्तर काल PART - 2
मौर्योत्तर काल PART - 3
कोई टिप्पणी नहीं
If you have any doubts please let me know...