'प्रागैतिहासिक काल में लेखन कला का विकास नहीं हुआ था। उस काल की जानकारी के स्रोत पाषाण उपकरण जैसे पुरातात्विक साक्ष्य हैं। आद्य-एतिहासिक काल में लेखन कला का विकास तो हो गया था परंतु अभी तक अपठनीय हैं। सिंधु घाटी सभ्यता की कालावधि को'आद्य-ऐतिहासिक काल' की संज्ञा दी जाती है। ऐतिहासिक काल' उस काल को कहते हैं, जिसके लेख पठनीय हैं।
प्रागैतिहासिक संस्कृतियां:
. प्रागैतिहासिक काल को 'पाषाण काल' भी कहा जाता है क्योंकि उस काल के सभी पुरातात्विक साक्ष्य पाषाण निर्मित हैं। इसे तीन कालों में बांटा गया है- पुरापाषाण काल, मध्य पाषाण काल, नवपाषाण काल।
पाषाण काल का आरंभिक काल पुरापाषाण काल के नाम से जाना जाता है। भारत में सर्वप्रथम 1863 ई. में ब्रिटिश भूविज्ञानी रोबर्ट ब्रुस फूट ने पल्लावरम् (मद्रास) से पाषाण निर्मित साक्ष्य प्राप्त किया था। 1935 ई. में डी.टेरा तथा पीटरसन ने शिवालिक पहाड़ियों से महत्वपूर्ण पाषाण उपकरण प्राप्त किये।
• पुरापाषाण काल को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-निम्न पुरापाषाण काल, मध्य-पुरापाषाण काल, उत्तर-पुरापाषाण काला
• निम्न-पुरापाषाण कालः
इस काल के पाषाण- उपकरण सोहन नदी घाटी (पाकिस्तान के पंजाब प्रांत), सिंगरौली घाटी (उ.प्र.), छोटानागपुर, नर्मदा घाटी तथा समस्त भारत (सिंघ एवं
केरल को छोड़कर) में पाये गये हैं। मुख्य उपकरण- शल्क, गंडासा, खंडक उपकरया, हस्तकुठार और बटिकाश्म। नर्मदा घाटी से होमोइरेक्टस के अस्थि अवशेष प्राप्त हुए हैं।
• इस काल को सोहन संस्कृति, चापर-चापिंग पेबुल संस्कृति तथा हैंडएक्स संस्कृति भी कहा जाता है। इस काल का मानव जानवरों का शिकार करता था तथा कन्दराओं में जानवरों की तरह रहा करता था।
• मध्य-पुरापाषाण काल:
इस काल में सिंध (पाकिस्तान), करल और नेपाल को छोड़कर भारत के प्रायः सभी प्रांतों में मनुष्यों के अस्तित्व के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। मुख्य स्थल- नेवासा (महाराष्ट्र), डीडवाना (राजस्थान), भीमबेटका, नर्मदा घाटी, पुरुलिया (प. बंगाल), तुंगभद्रा नदी घाटी थी।
प्रागैतिहासिक संस्कृतियां:
. प्रागैतिहासिक काल को 'पाषाण काल' भी कहा जाता है क्योंकि उस काल के सभी पुरातात्विक साक्ष्य पाषाण निर्मित हैं। इसे तीन कालों में बांटा गया है- पुरापाषाण काल, मध्य पाषाण काल, नवपाषाण काल।
1.पुरापाषाण काल
पाषाण काल का आरंभिक काल पुरापाषाण काल के नाम से जाना जाता है। भारत में सर्वप्रथम 1863 ई. में ब्रिटिश भूविज्ञानी रोबर्ट ब्रुस फूट ने पल्लावरम् (मद्रास) से पाषाण निर्मित साक्ष्य प्राप्त किया था। 1935 ई. में डी.टेरा तथा पीटरसन ने शिवालिक पहाड़ियों से महत्वपूर्ण पाषाण उपकरण प्राप्त किये।
• पुरापाषाण काल को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-निम्न पुरापाषाण काल, मध्य-पुरापाषाण काल, उत्तर-पुरापाषाण काला
• निम्न-पुरापाषाण कालः
इस काल के पाषाण- उपकरण सोहन नदी घाटी (पाकिस्तान के पंजाब प्रांत), सिंगरौली घाटी (उ.प्र.), छोटानागपुर, नर्मदा घाटी तथा समस्त भारत (सिंघ एवं
केरल को छोड़कर) में पाये गये हैं। मुख्य उपकरण- शल्क, गंडासा, खंडक उपकरया, हस्तकुठार और बटिकाश्म। नर्मदा घाटी से होमोइरेक्टस के अस्थि अवशेष प्राप्त हुए हैं।
• इस काल को सोहन संस्कृति, चापर-चापिंग पेबुल संस्कृति तथा हैंडएक्स संस्कृति भी कहा जाता है। इस काल का मानव जानवरों का शिकार करता था तथा कन्दराओं में जानवरों की तरह रहा करता था।
• मध्य-पुरापाषाण काल:
इस काल में सिंध (पाकिस्तान), करल और नेपाल को छोड़कर भारत के प्रायः सभी प्रांतों में मनुष्यों के अस्तित्व के प्रमाण प्राप्त हुए हैं। मुख्य स्थल- नेवासा (महाराष्ट्र), डीडवाना (राजस्थान), भीमबेटका, नर्मदा घाटी, पुरुलिया (प. बंगाल), तुंगभद्रा नदी घाटी थी।
• भीमबेतका के 200 से अधिक चट्टानी गुफाओं से इस काल के लोगों के रहने के साक्ष्य मिले हैं। चित्रकारी के भी प्रमाण मिले है। भीमबेतका की गुफाओं में चित्रकारी में हरे तथा गहरे लाल रंग का उपयोग हुआ है।
उच्च-पुरापाषाण काल:
रेनीगुंटा तथा कुरनूल (आंध्रप्रदेश), शोलापुर एवं बीजापुर में इसके प्रमाण मिले हैं।
• अस्थि उपकरण- अलंकृत छड़ें, मत्स्य भाला (हार्पून), नोकदार सुइयां। बेलनघाटी से शुद्ध फलक उद्योग के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
• मुख्य स्थल थे; बगोर, पंचपद्र घाटी एवं सोजत (राजस्थान), लंघनाज (गुजरात), अक्खज, बलसाना, बिन्ध्य व सतपुरा के क्षेत्र, आदमगढ़, भीमबेतका, वीरभानपुर (प. बंगाल), कर्नाटक के संगनकल्ल तथा उ.प्र. का सरायनाहर राय, लेखहीमा, मोरहाना पहाड़।
• इस कोल के लोग अंत्येष्टि क्रिया से परिचित थे। मानव अस्थियों के साथ कुत्ते की भी अस्थियां भी मिली हैं। पंचमढ़ी में महादेव पहाड़ियों में मध्य पाषाण युग के शैलाश्रय मिले हैं।
आदमगढ़, चिरांद (बिहार), ब्लूचिस्तान, उ.प्र. का बेलन घाटी, बुर्जहोम व गुफ्फरकराल (कश्मीर), मेहरगढ़, प. बंगाल, प्रायद्वीपीय भारत, कोटदीजी आदि मुख्य स्थल थे। कृषि कार्य का आरंभ, पशुपालन आरंभ, मृदभांड का निर्माण, कपड़ा बुनाई, आग से भोजन पकाना, मनुष्य स्थायी निवासी बन गया, खर एवं बांस की झोपड़ी बनाया जाने लगा, नाव का निर्माण हुआ।
• चिरांद और सेनआर नामक स्थान हड्डी के उपकरण के लिए प्रसिद्ध हैं।
• बेलनघाटी (उ.प्र.) से चावल का साक्ष्य, मेहरगढ़ (7000 ई.पू.) से सर्वप्रथम कृषि का साक्ष्य, आदमगढ़ और बागोर (5000ई. पू.) से प्राचीनतम पशुपालन के साक्ष्य प्राप्त हुए है
• बुर्जहोम (कश्मीर) के निवासी मृदभांडों का प्रयोग करते थे। यहां से मनुष्यों को कुत्तों के साथ दफनाने का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।
#.कोल्डीहवा :- चावल का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।
# मेहरगढ़:- प्रारंभिक कृषि कार्य के साक्ष्य
# इनामगांव: मातृदेवी की लघु मूर्ति, सांड की मृणमूर्ति, हाथी दांत के मनके
# बागोरः पशुपालन के प्रथम साक्ष्य
# आदमगढः चिरांद हड्डी के औजार
उच्च-पुरापाषाण काल:
रेनीगुंटा तथा कुरनूल (आंध्रप्रदेश), शोलापुर एवं बीजापुर में इसके प्रमाण मिले हैं।
• अस्थि उपकरण- अलंकृत छड़ें, मत्स्य भाला (हार्पून), नोकदार सुइयां। बेलनघाटी से शुद्ध फलक उद्योग के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
2.मध्य-पाषाण काल
• मुख्य स्थल थे; बगोर, पंचपद्र घाटी एवं सोजत (राजस्थान), लंघनाज (गुजरात), अक्खज, बलसाना, बिन्ध्य व सतपुरा के क्षेत्र, आदमगढ़, भीमबेतका, वीरभानपुर (प. बंगाल), कर्नाटक के संगनकल्ल तथा उ.प्र. का सरायनाहर राय, लेखहीमा, मोरहाना पहाड़।
• इस कोल के लोग अंत्येष्टि क्रिया से परिचित थे। मानव अस्थियों के साथ कुत्ते की भी अस्थियां भी मिली हैं। पंचमढ़ी में महादेव पहाड़ियों में मध्य पाषाण युग के शैलाश्रय मिले हैं।
3.नवपाषाण काल (7000-1000 ई.पू.)
आदमगढ़, चिरांद (बिहार), ब्लूचिस्तान, उ.प्र. का बेलन घाटी, बुर्जहोम व गुफ्फरकराल (कश्मीर), मेहरगढ़, प. बंगाल, प्रायद्वीपीय भारत, कोटदीजी आदि मुख्य स्थल थे। कृषि कार्य का आरंभ, पशुपालन आरंभ, मृदभांड का निर्माण, कपड़ा बुनाई, आग से भोजन पकाना, मनुष्य स्थायी निवासी बन गया, खर एवं बांस की झोपड़ी बनाया जाने लगा, नाव का निर्माण हुआ।
• चिरांद और सेनआर नामक स्थान हड्डी के उपकरण के लिए प्रसिद्ध हैं।
• बेलनघाटी (उ.प्र.) से चावल का साक्ष्य, मेहरगढ़ (7000 ई.पू.) से सर्वप्रथम कृषि का साक्ष्य, आदमगढ़ और बागोर (5000ई. पू.) से प्राचीनतम पशुपालन के साक्ष्य प्राप्त हुए है
• बुर्जहोम (कश्मीर) के निवासी मृदभांडों का प्रयोग करते थे। यहां से मनुष्यों को कुत्तों के साथ दफनाने का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।
#.कोल्डीहवा :- चावल का साक्ष्य प्राप्त हुआ है।
# मेहरगढ़:- प्रारंभिक कृषि कार्य के साक्ष्य
# इनामगांव: मातृदेवी की लघु मूर्ति, सांड की मृणमूर्ति, हाथी दांत के मनके
# बागोरः पशुपालन के प्रथम साक्ष्य
# आदमगढः चिरांद हड्डी के औजार
# बुर्जहोमः गत आवास
# हस्तिानापुरः जंगली गन्ना, चावल, कांच की चुड़ियां
# जखेडा: लोहे का हसिया, कुदाल, ताम्र चुड़ियां.
# कोल्डीहवाः चावल के अवशेष
# नेवासाः सूती कपड़े का साक्ष्य
# अतरंजीखेड़ाः कपड़े की छपाई के अवशेष
• मानव जीवन में सर्वप्रथम जिस घातु का प्रयोग किया गया, वह तांबा ( लगभग पांच हजार ई.पू.) था।
• मुख्य ताम्र-पाषाण संस्कृतियां निम्न थे- अहाड़ एवं गिलुंद (द.पू. राजस्थान की बनास घाटी), कायथा (म.प्र.) गिलुंद (अहमदनगर, मालवा संस्कृति।
• सभी ताम्र-पाषाण संस्कृतियों में मालवा मृदभांड सबसे उत्कृष्ट पाया गया है। मुख्य स्थल- प. बंगाल, पांडू राजार, ढिबी व वीरभूमि, महिषादल थे। बिहार में सेवार, चिरांद, ताराडीह तथा उ.प्र. में रैवाराडीह व नौहान प्रमुख स्थल थे।
• जोरवे संस्कृति के मुख्य स्थल थे- जारवे, नेवासा, दैमाबाद, चंदोली, सोनगांव, इनामगांव, प्रकाश व नासिक।
• 'अहाड़' का पुराना नाम 'ताम्बावती' (यानी तांबे वाली जगह) था। यहां पर काले -लाल रंग के मृदभांडों का प्रयोग होता था। पक्की ईंटों का प्रयोग नहीं होता था। लोग पत्थर के घरों में रहते थे।
• सोठी संस्कृति (राजस्थान) घग्घर घाटी के क्षेत्रों में फैली थी।
• द. भारत के ब्राह्मगिरि, पिकलीहल, संगानाकालू, मस्की, हल्लूर आदि से ताम्र-पाषाण युगीन तथा लौह युगीन बस्तियों के साक्ष्य मिले हैं।
• चित्रित मृदभांडों का सबसे पहले ताम्र पाषाणीय लोगों ने ही प्रयोग किया। ताम्र पाषाण कालीन लोगों ने ही प्रायद्वीपीय भारत में सबसे पहले बड़े-बड़े गांव बसाये। इनामगांव से चूल्हों सहित कच्ची मिट्टी वाले गोलाकार घर मिले हैं।
• महाराष्ट्र में लोग मृतकों को फर्श के अंदर उत्तर-दक्षिण दिशा में तथा दक्षिण भारत में पूर्व-पश्चिम दिशा में दफनाते थे।
अहार संस्कृति :2100-1500 ई.पू.
गैरिक मृदभांड संस्कृति :2000-1500 ई.पू.
कयथा संस्कृति :12000-1800 ई.पू.
सवालदा संस्कृति :2000-1800 ई.पू.
मालवा संस्कृति : 1700-1200 ई.पू.
जोरवे संस्कृति : 1400-700 ई.पू.
# हस्तिानापुरः जंगली गन्ना, चावल, कांच की चुड़ियां
# जखेडा: लोहे का हसिया, कुदाल, ताम्र चुड़ियां.
# कोल्डीहवाः चावल के अवशेष
# नेवासाः सूती कपड़े का साक्ष्य
# अतरंजीखेड़ाः कपड़े की छपाई के अवशेष
ताम्र-पाषाण काल
• मानव जीवन में सर्वप्रथम जिस घातु का प्रयोग किया गया, वह तांबा ( लगभग पांच हजार ई.पू.) था।
• मुख्य ताम्र-पाषाण संस्कृतियां निम्न थे- अहाड़ एवं गिलुंद (द.पू. राजस्थान की बनास घाटी), कायथा (म.प्र.) गिलुंद (अहमदनगर, मालवा संस्कृति।
• सभी ताम्र-पाषाण संस्कृतियों में मालवा मृदभांड सबसे उत्कृष्ट पाया गया है। मुख्य स्थल- प. बंगाल, पांडू राजार, ढिबी व वीरभूमि, महिषादल थे। बिहार में सेवार, चिरांद, ताराडीह तथा उ.प्र. में रैवाराडीह व नौहान प्रमुख स्थल थे।
• जोरवे संस्कृति के मुख्य स्थल थे- जारवे, नेवासा, दैमाबाद, चंदोली, सोनगांव, इनामगांव, प्रकाश व नासिक।
• 'अहाड़' का पुराना नाम 'ताम्बावती' (यानी तांबे वाली जगह) था। यहां पर काले -लाल रंग के मृदभांडों का प्रयोग होता था। पक्की ईंटों का प्रयोग नहीं होता था। लोग पत्थर के घरों में रहते थे।
• सोठी संस्कृति (राजस्थान) घग्घर घाटी के क्षेत्रों में फैली थी।
• द. भारत के ब्राह्मगिरि, पिकलीहल, संगानाकालू, मस्की, हल्लूर आदि से ताम्र-पाषाण युगीन तथा लौह युगीन बस्तियों के साक्ष्य मिले हैं।
• चित्रित मृदभांडों का सबसे पहले ताम्र पाषाणीय लोगों ने ही प्रयोग किया। ताम्र पाषाण कालीन लोगों ने ही प्रायद्वीपीय भारत में सबसे पहले बड़े-बड़े गांव बसाये। इनामगांव से चूल्हों सहित कच्ची मिट्टी वाले गोलाकार घर मिले हैं।
• महाराष्ट्र में लोग मृतकों को फर्श के अंदर उत्तर-दक्षिण दिशा में तथा दक्षिण भारत में पूर्व-पश्चिम दिशा में दफनाते थे।
अहार संस्कृति :2100-1500 ई.पू.
गैरिक मृदभांड संस्कृति :2000-1500 ई.पू.
कयथा संस्कृति :12000-1800 ई.पू.
सवालदा संस्कृति :2000-1800 ई.पू.
मालवा संस्कृति : 1700-1200 ई.पू.
जोरवे संस्कृति : 1400-700 ई.पू.
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