धार्मिक आंदोलन
वर्ण व्यवस्था की जटिलता, वैदिक कर्मकाण्डों के प्रति अंसतोष, नवीन विचारधाराओं का उदय, लौह आधारित नयी अर्थव्यवस्था के उदय ने सामूहिक रूप से धार्मिक आंदोलन को जन्म दिया।
भौतिकवादी संप्रदाय
पूरणकश्यप नामक ब्राह्मण'घोर अक्रियावाद' में विश्वास करता था। इसका विश्वास था कि कर्मों का कोई फल नहीं होता। उनके अनुसार न तो भले एवं शुभ कार्य करने में कोई पुण्य और न किसी की हत्या करने से कोई अशुभ कार्य होता है।
मक्खलिपुत्रगोशाल ने आजीवक सम्प्रदाय की स्थापना की। गोशाला की शिक्षा का मूलाधार अक्रियावाद तथा नियतिवाद था। इसके अनुसार प्राणी नियति के अधीन है। उसमें न बल है न पराक्रम।
अजीतकेशकम्बलिन नामक आचार्य नितांत भौतिकवादी या उच्छेदवादी था। इसके अनुसार पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि से शरीर निर्मित है। मृत्यु के बाद कुछ भी नहीं बचता। पाप-पुण्य तथा सत्य-असत्य की कल्पना झूठी है। इसका संबंध लोकायत सूत्र से है।
पकुध कच्चायन नित्यवादी थे जो पुनर्जन्म तथा कर्म को नकारता है। इसके अनुसार सात तत्वों; पृथ्वी, तेज, जल, वायु, सुख, दुख और जीवन अनियमित और बाध्य हैं।
संजय वेट्ठलिपुत्त 'अनिश्चयवादी अथवा संदेहवादी' था। उसके अनुसार न यही कह जा सकता है कि परलोक है और और न यह कि परलोक नहीं है।
वर्धमान महावीर व जैन धर्म
जैन धर्म के निम्नलिखित 24 तीर्थकर थे;
1. ऋषभदेव (प्रतीक: सांढ़)
2. अजितनाथ (प्रतीक: हाथी)
3. सम्भवनाथ (प्रतीक :घोड़ा)
4. अभिनन्दन
5. सुमितनाथ
6. पद्मप्रभु
7. सुपार्श्वनाथ 8.
9. सुविधि
10. शीतलनाथ
11. श्रेयांशनाथ
13. विमलनाथ
14. अनन्तनाथ
15. धर्मनाथ
16. शांतिनाथ चंद्र प्रभा
12. वासुपूज्य
17. कुंथुनाथ
18. अरनाथ
19. मल्लिनाथ
20. मुनिसुव्रतनाथ
21. नेमिनाथ
22. अरिष्टनेमि
23. पार्श्वनाथ (प्रतीकः सांप)
24. महावीर(प्रतीकः सिंह)
पहले तीर्थकर ऋषभदेव का जन्म अयोध्या में हुआ था जबकि 23वें तीर्थकर पार्श्वनाथ का जन्म काशी में हुआ था। पार्श्वनाथ का निर्वाण सम्मेद शिखर पर हुआ। उनके अनुयायियों को निग्रंथ कहा जाता है।
जैन धर्म के अनुसार 22वें तीर्थकर अरिष्टनेमि वासुदेव कृष्ण के समकालीन थे। पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित चार महाव्रत हैं; सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह व अस्तेय।
तीर्थकरों को अरिहंत (आंतरिक शत्रुओं का नाशक), जिन (आंतरिक शत्रुओं पर विजय), केवलिस (सभी का ज्ञान) व वित्रागी (किसी के प्रति कोई लगाव नहीं) भी कहा जाता है।
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म 540 ई. पू. (599 ई. पू.) वैशाली के निकट कुण्डग्राम में हुआ था। उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक कुल के गणराजा थे, जो वज्जि संघ का एक घटक था। उनकी माता का नाम त्रिशला था, जो लिच्छवि गणराज्य के प्रधान चेटक की बहन थी। मातृपक्ष से वे मगध के हर्यक राजाओं बिम्बिसार तथा अजातशत्रु के निकट संबधी थे। बचपन में वे वर्द्धमान नाम से जाने जाते थे।
युवा अवस्था में कुण्डिन्य गोत्र की कन्या यशोदा के साथ उनका विवाह हुआ, जिससे ओणज्जा (प्रियदर्शना) नाम की पुत्री पैदा हुई। ओणज्जा का विवाह जामालि से हुआ जो महावीर का प्रथम शिष्य था।
जब वर्द्धमान 30 वर्ष के हुए तो उन्होंने घर त्याग दिया और निग्रंथ भिक्षु का जीवन धारण कर तपस्या में रत हो गये।
12 वर्ष की कठिन तपस्या के बाद जम्भियग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के तट पर महावीर को 'कैवल्य' (सर्वोच्च ज्ञान) प्राप्त हुआ। इसी कारण उन्हें 'केवलिन' की उपाधि-मिली। अपने समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के कारण वे 'जिन' कहलाये। अपरिमित पराक्रम दिखाने के कारण उनका नाम 'महावीर' पड़ा। उन्हें अर्हत (पूज्य) और निग्रंथ (बंधनहीन) भी कहा गया।
चंपा, वैशाली, राजगृह आदि नगरों में घूम- घूम कर उन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया।
वैशाली के शासक चेटक, अवन्ति के राजा प्रद्योत एवं उसकी रानियाँ, बिम्बिसार और उसकी रानियाँ, कौशाम्बी और सिंघु-सौवीर के राजाओं, वैशाली के गणराज्य और मल्लों ने वर्द्धमान महावीर के धर्म को अपनाया। पद्मावती तथा चंपा नरेश दधिवर्मन से उत्पन्न चन्दना प्रथम जैन भिक्षुणी हुई और चम्पा नगरी जैन धर्म का मुख्य केन्द्र बना। आनन्द, कामदेव, सुरदेव, संद्धालपुत्र, महासयग साल्हीपिया एवं कुण्डकोलिय नामक व्यक्तियों ने धर्म प्रचार में महावीर का साथ दिया।
अपने धर्म का प्रचार करते हुए 72 वर्ष की अवस्था में 468 ई.पू. में पावापुरी में उनका निधन हो गया।
महावीर ने अपना पहला उपदेश राजगृह के निकट विपुलाचल पहाड़ी पर दिया।
बौद्ध धर्म में महावीर को निगंठ नाथपुत्त कहा गया है। मनुष्य जरा (वृद्धावस्था) तथा मृत्यु से ग्रस्त है। हर मानव को सांसारिक जीवन की तृषणाएं घेरे रहती हैं।
जैन धर्म के अनुसार सृष्टिकर्ता ईश्वर नही है किन्तु संसार को एक वास्तविक तथ्य माना गया है, जो अनादि काल से विद्यमान है।
जैन धर्म में भी सांसारिक तृष्णा-बंधन से मुक्ति को 'निर्वाण' कहा गया है। कर्मफल से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर हो सकता है।
कर्मफल से छुटकारा पाने के लिए त्रिरत्न का अनुशीलन आवश्यक है। जैन त्रिरत्न हैं;
1. सम्यक् दर्शन , 2. सम्यक् ज्ञान व 3. सम्यक् चरित्र।
कर्म का जीवन की ओर प्रवाह आस्रव कहलाता है। कर्मों का जीव की ओर बहाव रुक जाना 'संवर' व जीव में व्याप्त कर्म की समाप्ति 'निर्जरा' कहलाता है। मोक्ष की प्राप्ति के लिए महावीर ने तपश्चर्या एवं कायाक्लेश व सल्लेखन पर बल दिया है।
महावीर ने पूर्ववर्ती चार महाव्रत में पांचवां व्रत ब्रह्मचर्य जोड़ा।
गृहस्थ जीवन व्यतीत करने वाले जैनियों के लिए कठोरता में पर्याप्त कमी की गई है और इसलिए इन्हें 'अणुव्रत' कहा गया है।
उनके अनुसार 'जिन' सबसे बडा देवता था।
जैन धर्म ने जाति प्रथा की आलोचना करने के बावजूद इसे स्वीकार किया। जैनियों के अनुसार निम्न श्रेणी के व्यक्ति भी कर्मों के फल से निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं।
जैन दर्शन सात तत्वों को मानता है-जीव या आत्मा, आजीव, आस्त्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष प्रकृति या पुद्गल, जीव या अजीव। जैन दर्शन सप्तभंगी ज्ञान अथवा 'स्यादवाद' या 'अनेकांतवाद' को मानता है।
इसके अनुसार प्रत्येक प्रकार का ज्ञान (मति, श्रुति, अवधि, मनः पर्याय व कैवल्य) 7 स्वरूपों में व्यक्त किया जा सकता है;
मतिः इंद्रिय जनित ज्ञान
श्रुतिः श्रमण ज्ञान
अवधि: दिव्य ज्ञान
मनः पर्यायः अन्य व्यक्तियों के मन मस्तिष्क का ज्ञान
कैवल्यः पूर्ण ज्ञान
जैन-संघ महावीर स्वामी के पहले स्थापित था। इन्होंने पावा में 11 ब्राह्मणों को अपने धर्म में दीक्षित किया, जो उनके सर्वप्रथम अनुयायी थे।
महावीर ने अपने सारे अनुयायियों को 11 गणों में विभक्त किया और प्रत्येक गण (समूह)का गणधर (प्रधान) इन्हीं 11 ब्राह्मणों में से एक-एक को बनाया।
जैन संघ के सदस्य 4 वर्गों में विभक्त थे; भिक्षु, भिक्षुणी, श्रावक तथा श्राविका। इनमें भिक्षु तथा भिक्षुणी तो संन्यासी होते थे, किन्तु श्रावक तथा श्राविका गृहस्थ जीवन बिताते थे।
भद्रबाहुकृत जैनकल्प सूत्र से ज्ञात होता है कि महावीर के 20 वर्षों बाद सुधर्मन की मृत्यु हुई तथा उसके बाद जम्बू 44 वर्षों तक संघ का अध्यक्ष रहा। अंतिम राजा के समय सम्भूतविजय तथा भद्रबाहु संघ के अध्यक्ष थे। ये दोनों आचार्य महावीर द्वारा प्रदत्त 14 'पूब्बो' (प्राचीनतम जैन ग्रंथों) के विषय . में जानने वाले अंतिम व्यक्ति थे।
सम्भूतविजय की मृत्यु चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहण के समय हुई। उनके शिष्य स्थूलभद्र हुए इसी समय मगध में 12 वर्षों का भीषण अकाल पड़ा, फलतः भद्रबाहु अपने शिष्यों सहित कर्नाटक चले गये। किन्तु कुछ अनुयायी स्थूलभद्र के साथ मगध में ही रुक गये।
भद्रबाहु के वापस लौटने पर मगध के साधुओं से उनका गहरा मतभेद हो गया, जिसके परिणामस्वरुप जैन मत इस समय (लगभग 300 ई. पू.) श्वेताम्बर (थेरापंथी) तथा दिगम्बर (समैया) नामक दो सम्प्रदायो में बंट गया। जो लोग मगध में रह गये थे, श्वेताम्बर कहलाये। वे श्वेत वस्त्र धारण करते थे। भद्रबाहु और उनके समर्थक जो नग्न रहने में विश्वास करते थे, दिगम्बर कहे गये।
प्राचीन जैन शास्त्र चूंकि नष्ट हो गये थे अतः उन्हें पुनः एकत्र तथा उनका स्वरूप निर्धारित करने के लिए चतुर्थ शताब्दी ई.पू. में पाटलिपुत्र में जैन धर्म की प्रथम महासभा आयोजित की गई। पाटलिपुत्र की सभा में जो सिद्धान्त निर्धारित किये गये वे श्वेताम्बर संप्रदाय के मूल सिद्धान्त बन गये।
जैन धर्म का स्वरूप निश्चित करने के लिए छठी शताब्दी में देवऋद्धिगणि (क्षमाश्रमण)की अध्यक्षता में वल्लभी में दूसरी जैन महासभा हुयी।
प्राकृत और अर्द्धमागधी तथा अपभ्रंश भाषा का विकास जैनों की महत्वपूर्ण साहित्यिक देन मानी जा सकती है।
उज्जैन व मथुरा जैन धर्म के दो प्रमुख केंद्र थे।
दक्षिण भारत में राष्ट्रकूटों, गंग, कदंब एचं चालुक्य ने जैन धर्म को संरक्षण प्रदान किया।
कलिंग का खारवेल भी जैन धर्म का अनुयायी था। उसके हाथीगुंफा या खंडगिरि लेख में प्रारंभिक जैन के अवशेष प्राप्त होते हैं।
चंपा के शासक दधिवाहन की पुत्री चंदना महावीर की पत्नी चंदना महावीर की पहली महिला भिक्षुणी थी।
दिलवाड़ा में आदिनाथ, नेमिनाथ आदि के मंदिर प्राप्त होते हैं जबकि पार्श्वनाथ-आदिनाथ के मंदिर खजुराहों में हैं।
जैन स्थापत्य के उदाहरण
1. पावापुरी, राजगृह का मंदिर (बिहार)
2. पारसनाथ का मंदिर (पार्श्वनाथ) (झारखंड)
3. रणकपुर मंदिर (उदयगिरि)
4. दिलवाड़ा मंदिर, माउंटआबू (गुजरात)
5. बाघगुफा मंदिर, उदयगिरि
6. हाथी गुंफा मंदिर (उड़ीसा)
7. इन्द्रसभा, एलोरा (महाराष्ट्र)
8. गिरनार मंदिर (गुजरात)
9.बाहुबली या गोमतेश्वर प्रतिमा (कर्नाटक)
जैन साहित्य
जैन साहित्य को 'आगम' कहा जाता है, जिसमें 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, अनुयोग सूत्र व नन्दिसूत्र की गणना की जाती है।
अंग (12):
जैन आगम में निम्न 12 अंगों का प्रमुख स्थान है: 1. आचारांग सुत्त (भिक्षुओं के आचार नियम), 2. सूयग दंग सुत्त (सूत्र कृतांग), 3. ठाणंग (स्थानांग), 4. समवायंग सुत्त, 5. भगवती सुत्त महावीर के जीवन पर प्रकाश पड़ता है।, 6. नयाघम्मकहा सुत्त (ज्ञाताधर्मकथा) महावीर की शिक्षाओं का संग्रह, 7. उवासगदसओ सुत्त (उपासकदशा), 8. अंत गड्डदसाओं, 9. अणुत्तरोववाइय दसाओं, 10. पदहावागरणाई (प्रश्न व्याख्या), 11. विवाग सुयम्, 12. दिट्टिवाय (दृष्टिवाद)
उपांग (12):
1. औपपातिक, 2. राजप्रश्नीय, 3. जीवाभिगम, 4. प्रजापना, 5. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, 6. चंद्र प्रज्ञपित, 7. सूर्य प्रज्ञप्ति, 8. निरयावलि, 9. कल्पावसंतिका, 10. पुष्पिका, 11. पुष्य चूलिका, 12. वृष्णि दशा।
प्रकीर्ण (10):
ये प्रमुख ग्रंथों के परिशिष्ट हैं: 1. चतु:शरण, 2. आतुर प्रत्याख्यान, 3. भक्तिपरिज्ञा, 4. संस्तार, 5. तंदुल वैतालिक, 6. चंद्रवैधयक, 7. गणिविद्या, 8. देवेन्द्रस्तव, 9. वीरस्तव, 10. महाप्रत्याख्यान।
छेदसूत्र (6):
इनकी संख्या 6 है। इनमें जैन भिक्षुओं के लिए उपयोगी विधि नियमों का संकलन है। इसका महत्त्व बौद्धों के विनयपिटक जैसा है। 6 छेदसूत्र इस प्रकार है: 1. निशीथ, 2. महानिशीथ, 3. व्यवहार, 4. आचार दशा, 5. कल्प, 6. पंचकल्प।
मूलसूत्रः
इसमें जैनधर्म के उपदेश, भिक्षुओं कर्तव्य, विहार जीवन पथ नियम आदि का वर्णन है। इनकी संख्या चार है- उत्तराध्ययन, षडावशयक, दशवैकालिक, पिण्डनियुक्ति या पाक्षिक सूत्र।
नान्दी सूत्र एवं अनुयोग द्वारः
ये जैनियों के स्वतंत्र ग्रंथ तथा विश्वकोश हैं। इनमें भिक्षुओं द्वारा व्यवहार की जाने वाली प्रायः सभी बातें लिखी गयी हैं।
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