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 शैव धर्म 


शिव का अर्थ है शुभ लिंग पूजा। इसका सर्वप्रथम साक्ष्य सिंधु सभ्यता में मिलता है। मोहनजुदाड़ो से प्राप्त एक मुद्रा पर अंगधारी मानवाकार अंकन को पाशुपत शिव का आदि रूप माना है।

 ऋग्वेद में रूद्र पूजा का उल्लेख है। 

पतंजलि के महाभाष्य (द्वितीय सदी ई.पू.) में पहली बार शिव की मूर्ति पूजा का उल्लेख मिलता है। इसमें शिव, स्कंद व विशाख की पूजा का उल्लेख है।

 मेगस्थनीज ने शिव को डायोनिसस कहा है। 

गुप्त काल में सर्वप्रथम शिव-विष्णु (हरिहर) तथा शिव-पार्वती पूजा का उल्लेख मिलता है।

 वैष्णव मत के विपरीत शैव धर्म में भगवान शिव के अवतारों की कल्पना नहीं की गयी है।

 उत्तरवैदिक काल में रुद्र को 'शतरुद्रिय' और 'शिवातनुः' कहा गया और साथ ही पर्वत पर शयन करने के कारण उन्हें गिरीश और गिरित्र नाम से अभिहित किया गया।

 मेगास्थनीज ने ई.पू. चौथी शताब्दी से शैव मत का उल्लेख किया है। 

कुषाण कालीन मुद्राओं पर शैव सम्प्रदाय से सम्बद्ध अनेक आकृतियां अंकित हैं। 

चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य का मंत्री वीरसेन शैव था। कुमारगुप्त प्रथम का मंत्री पृथ्वीसेन ने शिव मन्दिर को दान प्रदान किया था। स्कन्दगुप्त का एक अधीनस्थ सामन्त महाराज हस्तिन शिवोपासक था। स्कन्दगुप्त के बैल प्रकार के सिक्के उसकी शैवधर्म के प्रति आस्था को व्यक्त करते हैं।

इस युग के साहित्य में शिव के विभिन्न स्वरूपों, मतों और सिद्धान्तों का उल्लेखकिया गया है। महेश्वर, ईश, ईश्वर, परमेश्वर, अष्टमूर्ति, वृषभध्वज, शूलभूत, पशुपति, त्रिनेत्र, स्थाणु, आयुग्मनेत्र, नीलकंठ, नीललोहित, शीतिकण्ठ, चण्डेश्वर, विश्वेश्वर, शनु, हर, गिरीश, महाकाल, भूतेश्वर, शिव, शंकर, पिनाकी आदि नामों से शिव का उल्लेख हुआ। 

कालिदास के साहित्य में गोकर्ण के शिव, काशी के विश्वनाथ और उज्जैन के महाकाल ज्योतिर्लिंग का संकेत मिलता है।

 मत्स्य पुराण के अनुसार त्रिपुर के दग्ध होने के समय वाणासुर ने शिव लिंग को सिर पर रख कर शिवपूजा की थी।

 गुप्तकाल में पाशुपत सम्प्रदाय का भी विकास हुआ। इस सम्प्रदाय के सिद्धान्त के 3 अंग हैं; पति (स्वामी); व्यक्ति, आत्मा या पशुः पाश (बन्धन)।

 गुप्त काल में शिव की कल्पना, अर्द्धनारीश्वर के रूप में की गयी। इसके अर्न्तगत पुरुष और नारी को शरीर के एक ही भाग के रूप में स्वीकार किया गया,

 शिव की पूजा, त्रिमूर्ति के अर्न्तगत ब्रह्मा और विष्णु के साथ होती थी जिसका प्रारम्भ गुप्त युग में हुआ था।

 एलीफेन्टा की त्रिमूर्ति अत्यन्त विख्यात है जिसमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं। ब्रह्मा सर्जक, विष्णु पालक और महेश संहार के प्रतीक हैं। 

शिव को हरिहर के रूप में विष्णु के साथ दर्शित किया गया था। इससे भी देव की कल्पना का विकास हुआ। 

शैवमत को बंगाल के शशांक, थानेश्वर, कन्नौज के पुष्यभूति वंश के शासकों और वल्लभी के मैत्रकों ने भी संरक्षण प्रदान किया था 

हूण राजा मिहिरकुल भी शैव मतालम्बी था।

 7वीं शताब्दी क मध्य में आये चीनी तीर्थ यात्री ह्वेनत्सांग ने पाशुपातों के सम्प्रदाय का और महेश्वर के उन मन्दिरों का जिनमें में पाशुपत पूजा करते थे, उल्लेख किया है। 

शिव ने लकुलीश नामक एक ब्रह्मचारी के रूप में अवतार धारण किया था, और उसके चार शिष्य थे कुशिक, गार्ग्य, कौरूप और मैत्रेय। लकुलीश ने पाशुपत पद्धति की स्थापना की थी। उसमें से चार सम्प्रदाय बन गये थे। 

पाशुपत सम्प्रदाय का उल्लेख महाभारत के नारायणीय खण्ड में है। 

उत्तर काल में शैव धर्म का विभिन्न सम्प्रदायों के रूप में विकास हुआ। इन सम्प्रदायों में कालानन, या कारूप, पाशुपत, लकुलीश और कापालिक आदि प्रमुख थे। शैवागम में ऐसे शैव सम्प्रदायों की संख्या 4 है :

1.शैव सम्प्रदायः इस मत के अनुयायियों की दृष्टि में 3 रत्न है- शिव, शक्ति और बिन्दु कर्ता शिखा है, कारण शिव और उपादान बिन्दु, अतः शैव सम्प्रदाय के ये तीन रत्न हैं, जो इस मत के समर्थकों के ज्ञान की प्राप्ति में सहायक होते हैं। 

2.पाशुपत सम्प्रदायः शैव मत का सबसे पुराना सम्प्रदाय पाशुपत है, जिसका उल्लेख महाभारत में है। शुरू की अवस्थाओं में इसका सम्बन्ध पशुओं के पति से किया गया था, परन्तु बाद में उस प्रभु (पति) से जोड़ दिया गया जो प्राणियों की बन्धन से मुक्ति पाने में सहायता करता है। बाद में इसका सम्बन्ध लकुलीश से जोड़ा गया, जिसे शिव का अवतार माना जाता है।

3. कापालिक सम्प्रदायः कापालिक सम्प्रदाय के अनुयायी सुरापान और भोजन में घृणित पदार्थ ग्रहण करते हैं और ऐसा विश्वास रखते हैं कि इस प्रकार से ज्ञान शक्ति तीक्ष्ण होती है। ये लोग घोर वाममार्गी थे। उनमें मद्यपान एवं नरबलि तक की मान्यता थी। कापालिकों के इष्टदेव भैरव हैं जो शंकर का अवतार माने जाते हैं। 

4.कालामुख सम्प्रदाय: कालामुख सम्प्रदाय के अनुयायी कापालिकों के ही वर्ग के थे, किन्तु वे उनसे भी अतिवादी थे। शिवपुराण में उन्हें 'महाव्रत' कहा गया है। 

5.लिंगायत सम्प्रदायः दक्षिण भारत में शैव धर्म के अन्तर्गत वीर शैव सम्प्रदाय का बड़ी तीव्र गति से विकास हुआ। इस सम्प्रदाय के अनुयायी 'लिंगायत' या 'जंगम' कहे जाते थे। इस सम्प्रदाय के अनुयायी शिवलिंग को चांदी के सम्पुट में रखकर गले में लटकाए रखते थे। इस सम्प्रदाय के प्रवर्तक वासव थे, जो कलचुरि राजा विज्जल के मंत्री थे। 

उपर्युक्त शैव-सम्प्रदायों के अतिरिक्त शैव मत से संबंधित कुछ अन्य सम्प्रदाय भी अति महत्वपूर्ण थे। श्री कण्ठ ने 'शुद्ध शैव सम्प्रदाय' की स्थापना की थी। कश्मीर में वसुगुप्त द्वारा प्रवर्तित प्रत्यभिज्ञान तथा कल्लट द्वारा प्रवर्तित स्पन्दशास्त्र प्रमुख उदारवादी शैव-सम्प्रदाय थे। 'मत्तमयूर' भी एक उदारवादी सम्प्रदाय था। 

दक्षिण भारत में शैव आंदोलन 63 नयनार संतों द्वारा चलाया गया, जिनमें प्रमुख थे- सुंदर मूर्ति, सम्बंदर आदि।


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